Tuesday, February 27, 2018

पुण्यतिथि : जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं आए थे चंद्रशेखर आजाद, इस महान क्रांतिकारी से जुड़ी 11 ख़ास बातें

27 फरवरी, 1931 जी हां यही वह दिन था जब भारत माता के वीर सपूत और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने वीरगति प्राप्त की। उस समय आजाद 25 बरस के भी नहीं हुए थे। सिर्फ 14 की उम्र में उन्होंने भारत माता की जय बोलते हुए पंद्रह बैंत की सजा खाई थी। केवल 17 वर्ष की उम्र में चंद्रशेखर आज़ाद क्रांतिकारी दल में शामिल हो गए। ऐसे महान क्रांतिकारी से जुड़ी कुछ ख़ास बातें आज हम आपको बता रहे हैं।

संस्कृत का विद्वान बनाना चाहती थी मां


23 जुलाई 1906 को मध्यप्रदेश के भावरा गांव में सीताराम तिवारी और जगरानी देवी के घर एक बालक ने जन्म लिया। इस बालका का नाम रखा गया चंद्रशेखर सीताराम तिवारी। इनका जन्म करवाने वाली दाईं मुस्लिम थी। उन्हें सभी मुन्ना कहकर बुलाते थे। चंद्रशेखर की मां चाहती थीं कि बेटा संस्कृत में विद्वान् बने। उन्होंने मुन्ना के पिता को राज़ी कर लिया था कि उसे पढ़ने के लिए वाराणसी के काशी विद्यापीठ में भेज दें। आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी इलाके में बीता इसलिए बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष-बाण चलाए। उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी।

साथी से शर्त पर जला ली थी अपनी हथेली


वह जब छोटे थे तो उनके गांव में बच्चे दीवाली पर फुलझड़ियां चला रहे थे। लेकिन एक बालक माचिस से तीली निकालता और जलाकर जल्दी से फेंक देता। चंद्रशेखर यह सब देख रहे थे। उन्होंने  उस बालक से कहा कि तुम एक तीली भी ठीक से नहीं पकड़ पा रहे हो, जबकि मैं सारी तीलियां एक साथ पकड़कर जला सकता हूं। दोनों में शर्त लगी और बालक ने माचिस चंद्रशेखर के हाथ में दे दी। चंद्रशेखर ने माचिस में रखी आड़ी-तिरछी तीलियां अपने हाथ में लीं और माचिस से रगड़ दीं। सभी तीलियां उनके हाथ में जल उठीं और वह उन्हें तब उन्हें तब तक पकड़े रहे जब तक वे पूरी तरह नहीं जल गईं।  उन्होंने अपना हाथ लड़के  दिखाया और कहा कि देखो मैने हथेली जलने पर भी तीलियां नहीं छोड़ी। इस घटना की खबर जब उनके घर हुई तो परिवार वाले उन्हें लेने पहुंचे। लेकिन पिता को आता देख चंद्रशेखर पिटाई के डर से जंगल में भाग गए और तीन दिन बाद वापस घर आए।

14 साल की उम्र में मिली थी ये सजा


चंदशेखर उस वक्त पढ़ाई कर रहे थे। उस दौरान 1919 में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश के नवयुवकों को झकझोर दिया था। सन 1921 में जब गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन चलाया तो अपने साथियों के साथ चंद्रशेखर भी सड़कों पर उतर आए। यहां वह पहली बार गिरफ्तार हुए। जब जज के सामने चंद्रशेखर को पेश किया गया तो जज ने उनसे उनका नाम पूछा। चंद्रशेखर ने कहा, मेरा नाम आजाद है, मेरे पिता का नाम स्वतंत्रता और मेरा पता जेल है। इससे अंग्रेज जज भड़क गया और उन्हें उन्हें 15 बैंत की सजा सजा सुनाई। उस समय उनकी उम्र 14 वर्ष थी। तब से चंद्रशेखर को आजाद के नाम से पहचाना जाने लगा।

क्रांतिकारियों के दल में ऐसे हुए शामिल हुए


आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष-बाण चलाए और निशानेबाजी भी बचपन में ही सीख ली थी। बालक चन्द्रशेखर आज़ाद का मन अब देश को आज़ाद कराने के अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया। उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था। वह मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल के सदस्य बन गये। क्रान्तिकारियों का वह दल "हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ" के नाम से जाना जाता था।

तैयार की थी काकोरी काण्ड की रूपरेखा



काकोरी काण्ड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों द्वारा ब्रिटिश राज के विरुद्ध भयंकर युद्ध छेड़ने की खतरनाक मंशा से हथियार खरीदने के लिये ब्रिटिश सरकार का ही खजाना लूट लेने की एक ऐतिहासिक घटना थी जो 9 अगस्त 1924 को घटी। क्रान्तिकारियों द्वारा चलाए जा रहे आजादी के आन्दोलन को गति देने के लिये धन की तत्काल व्यवस्था की जरूरत के मद्देनजर शाहजहांपुर में हुई बैठक के दौरान राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनाई थी।'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन' के केवल दस सदस्यों ने इस पूरी घटना को अंजाम दिया था। इस ट्रेन डकैती में जर्मनी के बने चार माउज़र पिस्तौल काम में लाये गये थे।
इस योजनानुसार दल के ही एक प्रमुख सदस्य राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने 9 अगस्त 1924 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी 'आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन' को चेन खींच कर रोका और क्रान्तिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खां, पंडित चन्द्रशेखर आज़ाद व 6 अन्य सहयोगियों की मदद से समूची ट्रेन पर धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया। लेकिन ट्रेन में एक चादर छूट जाने के कारण उन्हें बाद में गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के कुल 40 क्रान्तिकारियों पर सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां तथा ठाकुर रोशन सिंह को मृत्यु-दण्ड (फांसी की सजा) सुनायी गयी।

साधु का वेश बदलने में माहिर थे आजाद


अगस्त 1925 को हुए काकोरी काण्ड के बाद पुलिस उन्हें बुरी तरह खोज रही थी। लेकिन वह हर बार उन्हें चकमा देने में कामयाब हो जाते। बताया जाता है कि काकोरी काण्ड के बाद छिपने के लिए उन्होंने कई बार साधु वेश धारण किया था। एक बार वह दल के लिए धन जुटाने के लिए गाजीपुर के एक मठ के मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर रहे।

दोस्त की मदद के लिए आत्मसमर्पण करने को हो गए थे तैयार


चंद्रशेखर आजाद का एक दोस्त था रूद्रनारायण। यह एक पेंटर भी था। आजाद की मूंछो पर तांव देते हुए पेंटिग इसी ने बनाई थी। इसके घर की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी तो एक बार चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों के सामने सरेंडर करने को तैयार हो गए थे ताकि इनाम के पैसे दोस्त को मिल जाए और उसका घर अच्छे से चल सके।

अपने जीवन के दस साल अंग्रेजों को चकमा देते रहे आजाद


आजाद ने अपनी जिंदगी के 10 साल फरार रहते हुए बिताए। इसमें ज्यादातर समय झांसी और आसपास के जिलों में ही बीता। एक समय में चंद्रशेखर आजाद झांसी के पास 8 फीट गहरी और 4 फीट चौड़ी गुफा में सन्यासी के वेश में रहते थे। जब अंग्रेजो को इनके ठिकाने का पता चला तो इन्होनें स्त्री के कपड़े पहनकर अंग्रजों को चकमा दे दिया। वह अपने पास हमेशा माउजर रखते थे।

अपनी आखिरी पहचान ख़त्म करना चाहते आजाद


आजाद नहीं चाहते थे कि उनकी फोटो अंग्रेजों के हाथ लगे। इसके लिए उन्होंने दोस्त को झांसी भेजा, ताकि अंतिम फोटो की प्लेट नष्ट हो जाए। लेकिन, वह नही टूटी।

चंद्रशेखर को अपना गुरु मानते थे भगतसिंह


लाला लाजपत राय की हत्या के बाद भगत सिंह ने चंद्रशेखर आजाद से संपर्क बनाया। आजाद ने भगत सिंह और उसके साथियों को ट्रेनिंग दी। भगत सिंह उन्हें अपना गुरू मानते थे। आजाद कहा करते थे 'दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं आजाद ही रहेंगे।' चंद्रशेखर आजाद ने अपने जीवन में ये कसम खाई थी कि वह कभी जिंदा तो पुलिस के हाथ नहीं आएंगे।

खुद को ही मार ली थी आखिरी गोली


सांडर्स हत्या और एसेम्बली काण्ड में फांसी की सजा पाए तीनों क्रांतिकारियों राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह की फांसी रुकवाने के उन्होंने भरसक प्रयास किये। 27 फरवरी 1931 को चंदशेखर इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव से बातचीत करने पहुंचे। यह सूचना किसी ने पुलिस को दे दी। पुलिस ने चारों ओर से उन्हें घेर लिया। दोनों तरफ से गोलीबारी हुई। आजाद एक पेड़ की आड़ से उन पर गोलियां चलाने लगे। जब उनके माउजर की गोलियां खत्म हो गई तो आखिरी गोली उन्होंने खुद को ही मार ली और यह प्रण पूरा किया कि वह जीते-जी अंग्रेजों के हाथ नहीं आएंगे।

4 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, अमर शहीद पण्डित चन्द्रशेखर 'आजाद' जी की ७९ वीं पुण्यतिथि “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. 'शुक्रिया' शिवम् मिश्रा जी

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  3. अमर शहीद को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि !

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  4. अमर शहीद को मेरा सत सत प्रणाम

    उनकी जीवनी की बातें जानकर ठंडा खून भी रगों में दौड़ने लगता है।

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