Friday, April 20, 2018

PICS : अपनी बेटी को स्पेशल पार्टी पर ले जाते हैं 'जवान', 8 तस्वीरों में देखें 'डैड एंड डॉटर' की यूनीक बॉन्डिंग 

यकीनन आर्मी जवान मुश्किल नौकरी के चलते अपने परिवार और बच्चों को बहुत ही कम समय दे पाते हैं। यदि वे छुट्टियों में अपने घर लौटते हैं तो उनके नन्हें बच्चों की सैंकड़ों फरमाइशें उन्हें पूरी करनी ही होती हैं। और अगर वे एक बेटी के पिता हैं तो उनकी अलग से शाही फरमाइशें उन्हें पूरी करनी होती हैं। इंडियन आर्मी डैड भले ही अपनी नन्ही बेटी को एक स्पेशल पिकनिक पर न ले जाते हों, लेकिन अमेरिका में यह काफी चलन में है कि मिलिट्री-डैड अपनी छुट्टियों के दौरान अपनी बेटी को एक स्पेशल टी-पार्टी पर ले जाते हैं जो उनकी बेटी के लिए किसी 'परियों की कहानी' के होने जैसा एहसास करता है और उन्हें उनके पिता के स्पेशल होने का एहसास कराता है। आज हम आपके लिए लाएं हैं कुछ ऐसी तस्वीरें जिनमें 'डैड एंड डॉटर' की स्पेशल  बॉन्डिंग  साफ़ दिखाई पड़ती है :-

शेयरिंग द 'सॉफ्ट साइड'


यह हैं अमेरिकन मरीन कोर के ड्रिल इंस्ट्रक्टर केवेन पोर्टर। नए भर्ती होने वाले मरीनर्स उनके नाम से खौफ खाते हैं। मगर घर पर वह दुनिया के सबसे अच्छे पिता हैं। यकीनन मुश्किल जॉब के दौरान वे अपनी बेटी को बहुत कम वक्त दे पाते हैं। लेकिन केवेन ने अप्रैल 2017 की छुट्टियों में अपनी बेटी के लिए एक खास सरप्राइज प्लान किया और उसे एक आउटडोर टी-पार्टी पर ले गए। यही नहीं, केवेन ने एश्ले के साथ खास फोटोशूट भी कराया और वो भी एक ड्रिल इंस्ट्रक्टर के वर्दी में। 4 साल की एश्ले के लिए यह शायद कभी न भूलने वाला दिन बन गया।

दुनिया के सबसे प्यारे 'डैड'


पिता का बेटियों से खास लगाव होता है और अगर वे आर्मी में हैं तो जाहिर है कि  महीनों लंबी तैनाती के दौरान अपनी बेटियों को जरूर मिस करते हैं। लेकिन वे अपनी छुट्टियों का एक दिन अपनी बेटी के नाम करना कभी नहीं भूलते, क्योंकि यही तो उनकी बेटी को एहसास करता है कि कितने स्पेशल है उनके डैड।

'स्पेशल आउटडोर पिकनिक'


डैड के साथ डिज्नीलैंड कौन बच्चा नहीं जाना चाहता और आपकी बेटी को ये मौका मिले तो वह भला उसे कैश क्यों नहीं करना चाहेगी?  इस तस्वीर में भी पिता और बेटी की कुछ ऐसी ही बॉन्डिंग दिखाई दे रही है।

'लॉन्ग ड्राइव पर


कैसा रहे ? जब आप इन छुट्टियों में अपनी क्यूट सी बेटी को एक स्पेशल ड्राइव पर ले जाएं। उसके लिए शानदार ड्रेस खरीदें, उसके लिए कार का दरवाजा खोलें उसे कहानियां सुनाते हुए एक लॉन्ग ड्राइव पर ले जाएं और उसे एहसास कराएं कि आप उसके लिए कितने स्पेशल हैं।  

प्यारी 'गुड़िया' के लिए


तीन साल से भी कम उम्र की एली को शायद यह अंदाजा भी नहीं होगा कि उसके डैड अमेरिकन मरीन हैं और देश के लिए लड़ते हैं। लेकिन इस अमेरिकन मरीन के लिए उनकी नन्हीं बेटी कितनी खास है यह वह अच्छी तरह जानते हैं। तभी तो उन्होंने उसके लिए प्लान किया यह खास सरप्राइज।

'स्पेशल' होने का एहसास


अपनी नन्हीं बेटी के साथ एक खूबसूरत जगह पर एक स्पेशल टी-पार्टी एन्जॉय करता हुआ 'अमेरिकन मरीन सोल्जर'।य्य्य्यय्य

Showing The 'Love'


अपनी बेटी को प्यार जताने उसे स्पेशल होने का एहसास कराने का इससे शानदार तरीका नहीं हो सकता। और वह भी जब आप उसके साथ सेना की वर्दी में हों।

बेटियों के 'सम्मान' में


अमेरिका में इस खास पार्टी का चलन काफी लोकप्रिय हो रहा है। नतीजतन अब सेना के जवान ही नहीं बल्कि 'अमेरिकन पुलिस- डैड' भी इसी तरह अपनी बेटी के लिए एक खास दिन को यादगार बना देना चाहते हैं। इस तस्वीर में आप देख सकते हैं कि एक नन्ही बच्ची अपने पिता के साथ चाय और क्रीम बिस्कुट एन्जॉय करते हुए। वैसे बेटियों के  सम्मान में उन्हें एक खास दिन देना काफी रोचक है। साथ ही अपनी बेटी को इस बात का एहसास करने का यह  काफी आकर्षक तरीका भी है कि उसके पिता उसके लिए कितने खास हैं। तो आप कब ले जा रहे है अपनी लाडली को एक स्पेशल आउटिंग पर।
फोटो साभार : गूगल 

Tuesday, April 17, 2018

दुश्मन को धोखा देने के लिए सैनिक पहनते हैं यह सूट, जानें 6 खास बातें


दुनिया भर के स्नाइपर दुश्मन को धोखा देने के लिए एक खास किस्म की ड्रेस पहनाते हैं जिसे Ghillie suit कहते हैं। दुश्मन की नजर से खुद को बचाने के लिए स्नाइपर इस सूट को पहनते हैं। दरअसल, इसे पहनकर सैनिक पत्तों, बर्फ या रेत के मुताबिक नजर आता है। आमतौर पर यह एक महीन जालीदार कपडा या परिधान होता है जो जूट के ढीले स्ट्रिप्स से ढका होता है। आइये जानते हैं कि आखिर क्या है दुश्मन को धोखा देने वाली (Ghillie suit) यह पोशाक  : -

क्या होता है ghillie सूट


सैन्यकर्मी, पुलिस, शिकारी, और wild photographer  इस तरह के परिधान पुराने समय से पहनते आए हैं। फोटोग्राफर के इस पोशाक के पहनने के पीछे मकसद जानवरों की निगाह से खुद को बचाना है लेकिन एक स्नाइपर इसे पहनकर खुद को दुश्मन की नजरों से बचाता है। इस ड्रेस पर कई तरह के कपड़े की लंबी और ढीली पट्टियां झाड़-फानूस की तरह लगी होती हैं, जो सैनिक द्वारा पहने जाने पर यह सैनिक को पत्तियों और टहनियों व घास-फूंस के जैसा प्रदर्शित करती हैं।

ख़ास तरह  से डिजाइन होते हैं ये परिधान


आपको यह जानकार हैरानी होगी की ख़ास तौर पर सेना के स्नाइपर्स द्वारा विभिन्न ऑपरेशंस के दौरान पहने जाने वाले इस सूट को ख़ास डिजाइन के साथ तैयार किया जाता है। इसके रेशे या पट्टियां इतनी हलकी होती हैं कि जवान जंगल, पहाड़ या रेतीली जमीन पर जब अपनी पॉजिशन लेता है तो उसी के जैसा दिखता है। कुछ सूटों को मौसम के हिसाब से भी डिजाइन किया जाता है जो मजबूत व मोटे धागे से बने होते हैं और गर्म रहते हैं। इन सभी सूट्स को जवान अपनी वर्दी के ऊपर से पहनते हैं। यहां आपको यह भी बता दें कि स्नाइपर इनका ख़ास तौर पर इस्तेमाल करते हैं, ताकि दुश्मन को उनके आस-पास होने का एहसास न हो और वे करीब से सटीक निशाना लगा सकें।

 'स्कॉटिश हाईलैंड रेजिमेंट' इसका इस्तेमाल करने वाली पहली आर्मी यूनिट


इन सूट्स का अविष्कार सबसे पहले स्कॉटिश गेम्कीपर्स ने 'पोर्टेबल शिकारी सूट' के रूप में आड़ में शिकार करने के लिए किया था। सन 1916 में, लोवैट स्काउट ब्रिटिश सेना की पहली स्नाइपर यूनिट बन गई।'Second Boer War' के दौरान ब्रिटिश सेना द्वारा गठित एक स्कॉटिश हाईलैंड रेजिमेंट, लोवैट स्काउट, ghillie सूट का उपयोग करने वाली पहली आर्मी यूनिट कही जाती है।

ऐसे तैयार होते हैं सूट


उच्च गुणवत्ता वाले छलावा सूट हाथ से बने होते हैं लेकिन वर्तमान में इन्हें मशीन से भी बनाया जाता है। अधिकांश देशों में सैनिक आम तौर पर खुद भी अपने छलावा सूटों का निर्माण करते हैं। एक उपयुक्त छलावरण को पर्यावरण में मौजूद प्राकृतिक सामग्रियों से बनाया जाता है जिनके बीच स्नाइपर काम करता है। सेना व पर्यावरण के मुताबिक ही इनमें रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। एक बड़े और उच्च गुणवत्ता वाले सूट को बनने में तकरीबन एक सप्ताह से एक माह तक का समय लग जाता है। इन सूटों को खाद व मिट्टी लगने के लिए कीचड में डुबो दिया जाता है और फिर सुखाया जाता है ताकि ये पर्यावरण के अनुकूल दिखने लगें और इनसे ऐसी ही गंध आए। लोकेशन के अनुसार जवान इस पर पेड़ की टहनियां, सूखे पत्ते व अन्य तत्वों के साथ स्थिति के अनुकूल बना लेते हैं।

रखना पड़ता है सुरक्षा का विशेष ध्यान


हालांकि ghillie सूट कई परिस्थितियों के लिए अनुकूल साबित नहीं होते। लेकिन सुरक्षा के मामले में ये स्नाइपर्स की काफी मदद करते हैं। जहां छलावरण बेहद उपयोगी होते हैं वहीँ ये लोकेशन के मुताबिक काफी भारी हो जाते हैं। रेगिस्तान जैसे स्थान में कई बार वे बहुत भारी और गर्म होते हैं। जहां ghillie सूट के भीतर का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस (120 डिग्री फ़ारेनहाइट) तक पहुंच सकता है। ऐसे में स्नाइपर को इसे आग से बचाने का खास ध्यान रखना पड़ता है। पहनने वाले को अग्निशामक स्रोतों जैसे स्मोक ग्रेनेड या सफेद फॉस्फोरस से अधिक जोखिम हो सकता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए अमेरिकी सेना के 'सैनिक सिस्टम्स केंद्र' ने जूट या नायलोन के अलावा स्वाभाविक रूप से एक आग प्रतिरोधी, कपड़े विकसित किए। जिन्हें वर्ष 2007 में फोर्ट बेनिंग में स्नाइपर स्कूल में परीक्षण किया गया था।

इसके मिस यूज की फिराक में रहते हैं अपराधी


कई बार ऐसा भी हुआ है कि आम नागरिकों ने अपराध करने के लिए ghillie सूट का सहारा लिया। यह उस वक्त काफी चर्चा का विषय रहा था जब पुलिस ने एक ऐसे ऑस्ट्रेलियाई व्यक्ति को गिरफ्तार किया जिसने ghillie सूट पहनकर महिलाओं पर हमला किया था।

जानिये, सेना ने क्यों दोहराई 'चिंडित ट्रेनिंग'! आखिर कौन थे चिंडित सैनिक? जानें 8 खास बातें


हाल ही में भारतीय सेना के तकरीबन 100 जवानों ने इतिहास की उस घटना को जिंदा किया जिसके बारे में शायद ही आप जानते हों? दरअसल, इन जवानों ने 'चिंडित सैनिकों' के उस अभियान को दोहराया जब 75 साल पहले तीन हजार भारतीय सैनिकों ने  खतरनाक जंगलों और पहाड़ी इलाकों में गुरिल्ला ट्रेनिंग ली थी। आइये जानते हैं  कैसी थी यह ख़ास ट्रेनिंग और आखिर कौन थे 'चिंडित सैनिक' :-

500 किमी लंबा अभियान


भारतीय सेना ने पिछले माह 500 किमी लंबे चिंडित अभियान (chindits opration)का सफल समापन किया। अभियान दल ने अपना सफर विंध्य पर्वतश्रेणी के पश्चिम में बेतवा नदी और पूर्व में केन नदी से होते हुए दक्षिण में नर्मदा नदी के किनारे इस अभियान का सफलतापूर्वक संपन्न किया। 21 दिन तक चले इस अभियान को चार चरणों में पूरा किया गया।

30 किलो वजन के साथ पैदल ही पूरा करना था अभियान


इस अभियान में बीस रैंकों के 100 सैन्यकर्मियों ने पांच दिन के एक चरण में लगभग 125 किमी की दूरी तय की। प्रत्येक सैनिक को अपनी पीठ पर 25 से 30 किलो वजन लेकर चलना था। जहां अभियान के अंतिम चरण में सैनिकों को रानी दुर्गावती एवं 'नौरादेही अभयारण' विन्ध्य पर्वत की 752 मीटर की ऊंची चोटी से भी गुजरना था।

तारों को देखकर लगाया दिशा का अंदाजा


इस सफर की ख़ास बात यह थी कि अभियान के दौरान न तो सैनिकों के पास जीपीएस की सुविधा थी और न ही आधुनिक कम्युनिकेशन सिस्टम। अभियान के दौरान सैनिकों को केवल कम्पास, नक़्शे के सहारे और तारों की दिशा के अनुकूल आगे बढ़ना था और प्रतिकूल स्थितियों का मुकाबला करना था। यही नहीं अभियान के दौरान लोगों को चिकित्सा सुविधाएं भी सैनिकों द्वारा मुहैया कराईं गईं। जिसमें आठ मेडिकल कैम्प के अंतर्गत सुदूर इलाकों के 1020 लोगों को मुफ्त चिकित्सा दी गई।

विपरीत परिस्थिति में रहने का अभियान


सेना के मुताबिक इस अभियान का उद्देश्य 'चिंडित सैनिकों' के प्रशिक्षण अनुभव के साथ-साथ उनके अदम्य साहस को वर्तमान सैन्य पीढ़ी के लिए प्रेरणादायी बनाना था। देश के विभिन्न हिस्सों से आये सेना की विभिन्न पलटनों के सैनिकों के बीच यह अभियान एक प्रेरणादायी भावना के साथ चिंडित के आदर्श वाक्य – 'द बोल्डेस्ट मेजर्स आर द सेफेस्ट' के साथ इस अभियान को पूरा किया गया।

सबसे पुरानी स्पेशल फोर्स है  'चिंडित फोर्स'


दरअसल, 75 साल पहले जब दुनियाभर के देश दूसरे विश्व युद्ध में अपनी-अपनी सेनाएं उतार चुके थे, उस दौरान भारतीय सैनिक ब्रिटिश फौज की तरफ से मैदान-ए-जंग में दुश्मनों से लोहा ले रहे थे।  दरअसल, अंग्रेज अफसरों ने बर्मा (अब म्यांमार) में जापानी सेना को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारतीय सेना की गोरखा टुकडियों के सैनिकों को मिलाकर एक विशेष 'गुरिल्ला सेना' तैयार की थी। जिसे 'चिंडिट आर्मी' नाम दिया गया। चिंडित फोर्स की स्थापना 1943-1944 में जनरल औरडे चाल्र्स विंगेट ने की थी।

किसी भी हाल में जीवित रहने के लिए प्रशिक्षित किये गए थे 'चिंडित'


युद्ध में शामिल करने से पहले चिंडित सेना को सेन्ट्रल इंडिया के मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के घने जंगलों में गहन प्रशिक्षण दिया गया। दुर्गम जंगलों, ऊंचे पहाड़ों और नदियों वाले क्षेत्र में गहन प्रशिक्षण लेने वाली इस चिंडित सेना ने अपने पराक्रम और अभियानों के दम पर ही जापानी सेना का मनोबल तोड़ा था। गुरिल्ला सेना के अभियानों ने ही जापानी सेना की हार में निर्णायक भूमिका निभायी।

बिना राशन के गुजार सकते थे कई दिन


चिंडित अभियान के तहत हालांकि लगातार 21 दिन तक जंगल में रहे सैनिकों के पास समय-समय पर रसद पहुंचाई जाती रही लेकिन पुरानी 'चिंडित पलटन' को केवल 7 दिन का राशन दिया गया था। पर राशन खत्म होने पर वे शिकार करके पेट भर सकते थे। जंगलों, पहाड़ों और नदियों के बीच मिली खास ट्रेनिंग की बदौलत चिंडित इतने सक्षम और सबल हो गए थे कि यहां इन्होनें विषम परिस्थितियों में जिन्दा रहने की हर तरकीब सीख ली। यही वजह थी कि उन्होंने बर्मा में जापानियों के पांव उखाड़ दिए। जापानी सेना के कई कम्युनिकेशन सेंटर तबाह कर डाले। चिंडित अपने ज्यादातर हमलों को रात के वक्त अंजाम देते थे।