Tuesday, December 10, 2013

 8 दिसंबर 2012 को  मुंबई एब्सोल्यूट इंडिया में प्रकाशित

Friday, October 11, 2013

शूज वॉक अराउंड द वर्ल्ड..


जूते से तो आप परिचित होंगे ही, जूता पैरों में पहनी जाने वाली एक ऐसी वस्तु है, जिसका उद्देश्य चलते खेलते दौड़ते समय पैरों को सुरक्षा और आराम देना है।

केवल काम के वक्त पहना जाता था जूता

समय समय पर संस्कृति के साथ जूते के डिजाइन व रंग रूप में बड़ा परिवर्तन आया है। अपने मूल स्वरूप में जूते काम के समय में पहना जाता था। समकालीन जूते बनावट मजबूती और लागत की दृष्टि से व्यापक रूप में भिन्न होते हैं। बुनियादी सैंडल में केवल एक पतला तला और एक सामान्य पट्टा शामिल था, जबकि अन्य जूते अति विशिष्ट प्रयोजनों के लिए होते हैं, जैसे पर्वतारोहण और स्कीइंग के लिए डिजाइन किए गए जूते। पारंपरिक रूप से जूते चमड़ा, लकड़ी या कैनवास से बनाए जाते रहे हैं, लेकिन उत्तरोत्तर रबर, प्लास्टिक और अन्य पेट्रोरसायन-व्युत्पन्न सामग्री से बनाए जाने लगे हैं। हाल के वर्षों तक, जब विश्व की जनसंख्या के अधिकांश लोगों द्वारा जूते नहीं पहने जाते थे, क्योंकि वे खरीदने में समर्थ नहीं थे। बड़ी संख्या में उत्पादन के आगमन के उपरांत ही जूतों के सस्ती दर पर उपलब्ध होने से, जूते पहनने का चलन प्रबल हुआ है।

चमड़े से बना था पहला जूता

 सर्वाधिक पुराने जूते 1938 में ओरेगन, संयुक्त राज्य अमेरिका में पाए गए 8000 से 7000 ई पू पुराने सैंडल हैं। दुनिया का सबसे पुराना चमड़े का जूता जो गोचर्म के एक ही टुकड़े से बना था और सामने तथा पीछे सीवन के साथ चमड़े की डोरी से बांधा गया था, यह 2008 में आर्मेनिया की एक गुफा में पाया गया है और यह विश्वास किया जाता है कि यह 3500 ईसा पूर्व का है। 3300 ईसा पूर्व पुराने पर्वतारोहियों के जूते, ओत्जी जिनके तले भालू की खाल से बने थे। हालांकि, जूते बनाने के लिए सर्वाधिक उपयोग किया जाने वाला पकाया हुआ चमड़ा, सामान्यत हजारों वर्ष तक नहीं टिक सकता, इसलिए संभवत इससे पूर्व भी जूतों का प्रयोग होता होगा।  जूतों का उपयोग आज से 40,000 से 26,000 वर्ष पूर्व के बीच आरंभ हुआ था, जैसे ही यूरोप ने धन और शक्ति प्राप्त की, बढ़िया और महंगे जूते हैसियत के प्रतीक बन गए।  कारीगर अमीर ग्राहकों के लिए अद्वितीय जूते बनाते थे, और नई शैली विकसित करत थे। इसी श्रेणी में  एक सिले हुए तले वाले आधुनिक जूते का आविष्कार हुआ। 17वीं सदी से, चमड़े के जूतों में सिले हुए तले का सर्वाधिक उपयोग किया जाता है। आज भी यह बेहतर गुणवत्ता वाले कपड़े पहनने वालों के लिए जूते का मानक बना हुआ है। 1800 के आसपास तक, जूते बाएं या दाएं पैर का अंतर किए बिना बनाए जाते थे। इस तरह के जूतों को अब स्ट्रेट्स कहा जाता है। 20वीं सदी के बाद से, रबर, प्लास्टिक, सिंथेटिक कपड़ा और औद्योगिक आसंजकों के क्षेत्र में प्रगति ने निमार्ताओं को जूते की पारंपरिक निर्माण तकनीक से उल्लेखनीय रूप में परे हटकर जूतों के निर्माण के अवसर दिए।

इतनी तरह के जूते

स्प्रैडिल्स- सैंडल, जो आज भी पहने जाते हैं, अधिकतम 14 वीं सदी जितने पुराने हैं।  इसी तरह खड़ाऊं व्यक्ति के पैरों को बाहर से  सूखा रखने के लिए लकड़ी का एक यूरोपीय आवरण जूता था। इसे सबसे पहले मध्य युग में पहना गया और 20वीं सदी के शुरू तक भी इसका इस्तेमाल जारी रहा। कुछ डच, फ्लेमिंग्स और कुछ फ्रेंच लोगों ने इसी प्रकार के पूरी तरह से ढके हुए नक्काशीदार लकड़ी के जूते तैयार किए। लकड़ी से ही बना आगे से लंबा व नोकदार जूता 15वीं सदी में काफी लोकप्रिय रहा। उत्तरी अमेरिकी जनजातियों द्वारा पहना जाने वाला मोकासिन एक ऐतिहासिक जूता था।

पुरुष भी पहनते थे हाइहील

आपको जानकर हैरानी होगी की कभी पुरुष भी महिलाओं की ही तरह हाई हील पहना करते थे। ऊंची एड़ी जूते के इतिहास की बात की जाए तो फ्रांस के लुइस चौदहवें का जिक्र करना जरूरी है। दरअसल वह एक महान शासक था, लेकिन उसकी लंबाई केवल पांच फुट चार इंच थी। उसने अपनी इस कमी को पूरा करने के लिए 10 इंच की हील के जूतों से पूरा किया। उसके जूतों की हील्स पर अक्सर उसके द्वारा जीते गए युद्धों को जिक्र उकेरा जाता था। 1740 तक पुरुषों ने ऊंची हील का इस्तेमाल करना बंद कर दिया था। 50 साल बाद ए ऊंची हील के जूते महिलाओं के पैरों से भी गायब हो गए।
-   जूते ने परी कथाओं सिंड्रेला, द  वंडरफुल विजार्ड आॅफ ओज तथा द रेड शूज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
-    साहित्य फिल्म में, खाली जूता या जूते की जोड़ी को मृत्यु का प्रतीक माना जाता है। 
-    मध्य पूर्व, अफ्रीका के कुछ भाग, कोरिया और थाईलैंड में किसी को जूतों के तले दिखाना असभ्यता मानी जाती है
-    जूता फेंकना मध्य पूर्व के कुछ भागों और भारत में एक बड़ा अपमान माना जाता है।
-    थाइलैंड में पैर, जुराब या जूते का किसी के सिर से छू जाना या सिर पर रखना एक  चरम अपमान समझा जाता है।
-    दुनिया का सबसे महंगी सैंडल  276.000 पौंड से अधिक कीमत के है। इसमें एक लाख सफेद हीरे लगे हैं। जिसकी भारतीय मुद्रा में कीमत तीन करोड़ के लगभग है। डिजाइनर कोथ्रिन विल्सन ओक्लेंड ओर्सिनी  ने ए जूते तैयार किए हैं।
-    इटली की कंपनी मिनेल्ली को जूतों पर भगवान राम के चित्र छापे जाने के कारण जूते बाजार से वापस लेने पड़े थे।
-  स्टुअर्ट विहट्ज्मेन आज के समय में महंगे जूते डिजाइन करने के लिए प्रसिद्ध हैं।

Sunday, August 25, 2013

जिम्बाब्वे के नायक हैं रॉबर्ट मुगाबे...

राबर्ट गेबिरियल मुगाबे ने जब 23 अगस्त को जिम्बाब्वे के राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली, तो उमड़ी भीड़ को देखकर लग रहा था कि वह आज भी अपने देश की जनता के दिल में जगह बनाए हुए हैं। 21 फरवरी वर्ष 1924  को दक्षिणी रोडेशिया के कुतामा में जन्मे मुगाबे के पिता एक कारपेंटर थे, जो साउथ अफ्रीका के एक जैसुट मिशन पर कार्य करते थे और एक दिन अचानक रहस्यमई तरीके से गायब हो गए थे। छह बच्चों के साथ मुगाबे की मां अब अकेली थी। मुगाबे अपने बहन भाइयों में तीसरे नंबर हैं। उन्होंने अपने परिवार की मदद करने के लिए छोटी नौकरी करनी शुरू कर दी। मुगाबे की सोसायटी में अच्छी शिक्षा ग्रहण करना बच्चों के लिए सपना था, लेकिन मुगाबे उनमें से भाग्यशाली थे कि उन्हें अच्छी शिक्षा ग्रहण करने का मौका मिला।
मुगाबे ने अपनी प्राथमिक शिक्षा के बाद 1951 में अंग्रेजी और इतिहास में साउथ अफ्रीका की यूनिवर्सिटी से  बैचलर डिग्री प्राप्त की, जिसके बाद वह शिक्षक के तौर पर कार्य करने के लिए अपने होमटाउन वापस आ गए। 1955 में वह उत्तरी रोडेशिया चले आए, जहां उन्होंने चालिंबाना में चार वर्षों तक अध्यापन का कार्य किया। घाना आने के बाद उन्होंने 1958 में अर्थशास्त्र में डिग्री हासिल की और सेंट मेरी टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज में शिक्षण कार्य करने लगे। यहीं पर उनकी मुलाकात शैली हेयफ्रॉन से हुई, जिससे उन्होंने 1961 में विवाह किया। दुर्भाग्यवश बीमारी के कारण पत्नी की मृत्यु हो गई। उनका एकमात्र बेटा माइकल नहामोडजेनियाका भी केवल तीन वर्ष की उम्र में चल बसा।
घाना में ही मुगाबे ने खुद को मार्क्सवादी घोषित किया। 1963 में उन्होंने कुछ समर्थकों के साथ ह्यजिम्ब्वावे अफ्रीकन नेशनल यूनियनह्ण की स्थापना की।  वह पहली बार 1960 में उस समय प्रसिद्ध हुए, जब रोडेशिया में गोरे लोगों का राज चल रहा था और मुगाबे ने गोरे शासन के खिलाफ छापामार युद्ध छेड़ रखा था। 1964 से 1974 के बीच वह एक राजनीतिक कैदी रहे। स्वतंत्रता युद्ध के बाद वह अफ्रीकियों के नायक के तौर पर उभर कर सामने आए थे। 1980 में वह पहली बार जिम्ब्बावे के प्रधानमंत्री बने थे। 1987 में उन्होंने पहली बार राष्ट्रपति का पद हासिल किया। 1990, 1996 व 2002 में वह दोबारा राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए। 2008 में वह फिर से राष्ट्रपति बने। मुगाबे 1990 से यूनिवर्सिटी आॅफ जिम्ब्बावे के चांसलर भी रह चुके हैं। 1996 को मुगाबे ने अपनी पूर्व सेक्रेटरी ग्रेस मारूफू से विवाह किया, जो अपनी शॉपिंग के कारण हमेशा चर्चा में रहती हैं।

Thursday, July 25, 2013

मर्दों से बेहतर होती महिला सेलिब्रिटी

 क्या उन्हें औरत होने का फायदा मिलता है या फिर वे वाकई मर्दों से बेहतर होती हैं. वजह जो भी हो, कमाई देखें, तो पता चलता है कि महिला सेलिब्रिटी पैसों के मामले में दो कदम आगे चल रही हैं.फोर्ब्स ने जो ताजा सूची जारी की है, उसमें 30 साल से कम उम्र के लोगों का जिक्र है. 10 में से सात सेलिब्रिटी महिला हैं और लेडी गागा सबसे ऊपर मौजूद हैं. 27 साल की गागा ने पिछले साल कोई आठ करोड़ डॉलर कमाए, जो किसी भी रिकॉर्ड से ज्यादा है.लेडी गागा तो इससे भी कहीं ज्यादा कमा सकती थीं लेकिन उनका कूल्हा टूट गया और उन्हें चार टूर रद्द करने पड़े. इसके बाद वह अपने 24 कैरेट सोने से जड़ी व्हील चेयर में ज्यादा नजर आईं. उनकी कमाई ने कनाडियाई पॉप स्टार 19 साल के जस्टिन बीबर को भी बौना साबित कर दिया, जिनकी कमाई कोई 5.8 करोड़ डॉलर रही. कमाई की लिहाज से 30 साल से कम वाले टॉप 10 सेलिब्रिटी-
1. लेडी गागा (8 करोड़ डॉलर)

2. जस्टिन बीबर (5.8 करोड़ डॉलर)

3. टेलर स्विफ्ट (5.5 करोड़ डॉलर)

4. कैल्विन हैरिस (4.6 करोड़ डॉलर)

5. रिहाना (4.3 करोड़ डॉलर)

6. केटी पेरी (3.9 करोड़ डॉलर)

7. अडेल (3 करोड़ डॉलर)

8. जेनिफर लॉरेंस (2.6 करोड़ डॉलर)

9. क्रिस्टेन स्टीवर्ट (2.2 करोड़ डॉलर)

10. टेलर लॉटनर (2.2 करोड़ डॉलर)

नए नए रईस....

 चीन को पैसा बनाने की मशीन कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, लेकिन अपनी संस्कृ ति और परंपराओं को लेकर आज भी अपने पुराने ढर्रे पर चल रहा हैं। जी हां, आपको जानकर हैरानी हो रही होगी कि अपने मशीनी पॉवर और टैक्नीक का परचम लहराने वाले चीन के रईस अब सलीके भी सीखने लगे हैं।  हाल ही के दिनों में तेजी से रईस हुए चीनी हुकमारान नारंगी छीलने, कांटा और छुरी पकड़ने की तालीम हासिल कर रहे हैं। दो हफ्ते के इस कोर्स की फीस करीब नब्बे हजार रुपए है और इसमें दाखिला लने वालों की अच्छी खासी भीड़ भी। कोर्स को चलाने वाली सारा जैन के मुताबिक चीन की बड़ी आबादी दो बिल्कुल अलग पीढ़ियों के बीच फंस गई है, क्योंकि उनके बच्चे एक उन्मुक्त समाज में जी रहे हैं जिसके चलते उन्हें एक साथ कई जिम्मेदारियां निभानी पड़ रही हैं। सारा की मानें तो यहां आने वाले  50 प्रतिशत संख्या ऐसे लोगों की है, जो कोर्स की फीस का तीन गुना कीमत देने की हैसियत रखते हैं। यही नहीं, यहां आने वाले लोगों में 400 से भी ज्यादा संख्या हाई सोसाइटी लेडीज की है, जो कपड़े पहनने के शऊर से लेकर गोल्फ, राईडिंग जैसे खास खेलों की जानकारी लेती हैं, प्रसिद्ध वाइनों के बारे में जानती हैं और चाय परोसने व टेबल सजाने के तरीके सीख रही हैं। चीन में हाई सोसाइटी की अधिकतर महिलाएं किसी बड़ी शादी में जाने पर सिर्फ इसलिए खाना नहीं खाती क्योंकि, उन्हें यह नहीं मालूम कि वैस्टर्न कल्चर के मुताबिक कैसे खाया जाता है यानी कैसे छुरी और कांटे का इस्तेमाल होता है। यही, नहीं यहां आने वाले ऐसे पुरुष भी हैं, जिन्हें यह सिखाया जाता है कि किसी से पहली ही मुलाकात में ही यह नहीं पूछना चाहएि कि तुम कितना कमाते हो या फिर तुमने अपनी पत्नी से तलाक क्यों ले लिया। इस कोर्स की प्रशिक्षक जोसलिन वांग का कहना है कि किसी भी बड़े अधिकारी या सेलिब्रिटी के लिए उसके खाने व छुरी व कांटे को पकड़ने का तरीका उसकी शख्शियत बताने के लिए बड़ा रोल अदा करता है। यानी कहा जाए कि चीन के लोग नए नए रईस हुए हैं इसलिए रईसों के तौरतरीके भी अपनाने ही पड़ेंगे और पुरानी व नई पीढ़ी के फासले को खत्म करने के लिए यह भी जरूर ही है।

Saturday, July 6, 2013

अदली मंसूर के सिर पर कांटों का ताज .............

मिस्र  के मुख्य न्यायाधीश अदली मंसूर ने नहीं सोचा होगा कि हालात ऐसे हो जाएंगे कि उन्हें मिस्र के अंतरिम राष्ट्रपति की शपथ लेनी पड़ेगी। हकीकत यह है कि वह अब ऐसे मुल्क के शासक बन गए हैं, जो उथल-पथल के दौर से गुजर रहा है और जिसे स्थायित्व की जरूरत है। ऐसे में मंसूर के लिए राष्ट्रपति का ताज कांटों भरा है और राह मुश्किल। मंसूर की नियुक्ति वर्ष 2011 में तैयार हुए कानून के तहत हुई है, जो अदालत को स्वतंत्रता प्रदान करता है तथा राष्ट्रपति की शक्तियां कम करता है।
23 दिसंबर 1945 को काहिरा में जन्मे अदली  मंसूर का पूरा नाम अदली महमूद मंसूर है। मंसूर एक पुत्र व दो पुत्रियों के पिता हैं। उन्होंने वर्ष 1967 में काहिरा यूनिवर्सिटी स्कूल आॅफ लॉ से स्नातक की डिग्री हासिल की तथा वर्ष 1969 में कानून में परास्नातक डिग्री प्राप्त की थी। यही नहीं, उन्होंने अर्थशास्त्र की शिक्षा के साथ मैनेजमेंट साइंस में भी 1970 में पोस्टग्रेजुएट डिग्री हासिल की है। वर्ष 1984 में वह मिस्र की राज्य परिषद के चांसलर के रूप में कार्यरत रहे। वर्ष 1992 तक एससीसी यानी सुप्रीम कांस्टीट्यूशनल कोर्ट के उप प्रमुख के रूप में अपनी सेवाएं दे चुके हैं।
माना जा रहा है कि मिस्री सेना प्रमुख अलसीसी के हाथों में ही सत्ता रहेगी। उन्होंने पिछले ही वर्ष हुसैन तंतावी की जगह रक्षा मंत्री पद का स्थान ग्रहण किया है। अल सीसी रोज नमाज करने वाले मुसलमान जरूर हैं, लेकिन वह सेक्युलरइज्म में यकीन रखते हैं। आज मिस्र की जनता की भी यही ख्वाहिश है कि मिस्र पर वही व्यक्ति शासन करे, जो कट्टरपंथी न हो। जाहिर है कि इस मामले में अदली मंसूर के रूप में सेना प्रमुख का चुनाव सही है। इस मुश्किल वक्त में मुर्सी की नाकामी के बाद मिस्र की जनता ने फिर से सेना पर भरोसा किया है। अल सीसी के जनरल जनता का भरोसा जीतने में तो कामयाब हो गए हैं, लेकिन उनकी उम्मीदों पर कितने खरे उतरते हैं, यह देखने वाली बात होगी।
अल सीसी के साथ ही अंतरिम राष्ट्रपति अदली मंसूर पर पहली सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो यही है कि वह जल्दी ही नए राष्ट्रपति के लिए शांतिपूर्वक चुनाव कराएं। दूसरे यह कि मिस्र को आर्थिक मोर्चे पर मजबूती प्रदान करें। तीसरी यह कि मुसलिम ब्रदरहुड को हिंसक प्रतिक्रिया करने से बाज रखें। हालांकि अल सिसी ने वादा किया है कि सेना राजनीति से जाहिर तौर पर दूर रहेगी, लेकिन वह अदली मंसूर को कठपुतली नहीं बनाएगी, यह देखने वाली बात होगी। मुर्सी का तैयार किया हुआ इसलामी संविधान निलंबित किया जा चुका है। अदली मंसूर को बहुत सावधानी के साथ कदम बढ़ाने होंगे। मिस्र की जनता को तहरीर चौक पर जमा होने में देर नहीं लगती।

Friday, June 28, 2013

सूफी संतों की भूमि खुल्दाबाद ...




महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित खुल्दाबाद एक एतिहासिक स्थान है यह दौलताबाद से 14 मील की दूरी पर पश्चिम में स्थित है। इस नगर को सूफी संतों की भूमि भी कहा जाता है।2,732 फुट की ऊंचाई पर बसा है। खुल्दाबाद में कई मुगल शासको की कब्रें हैं। औरंगजेब के साथ उसके पुत्र आजमशाह, आसफशाह, हैदराबाद के संस्थापक नासिरजंग, निजामशाह आदि बादशाहों की कब्रें भी इसी स्थान पर हैं। पहले इस नगर का नाम रौजा था लेकिन औरंगजेब की मृत्य के बाद इस स्थान का नाम खुल्दाबाद पड़ा क्योंकि औरंगजेब को खुल्दमकान भी कहा जाता है। यह स्थान स्वास्थ्य लाभ के लिए भी प्रसिद्ध है।

औरंगजेब का मकबरा

अबुल मुजफ्फर मुहिउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब आलमगीर (4 नवम्बर 1618 - 3 मार्च 1707) जिसे आमतौर पर औरंगजेब या आलमगीर (स्वंय को दिया हुआ शाही नाम  अर्थ होता है विश्व विजेता) के नाम से जाना जाता था भारत पर राज्य करने वाला छठा मुगल शासक थो उसका शासन 1659 से लेकर 1707 में उसकी मृत्यु होने तक शासन किया।  इतिहास में औरंगजेब का चित्रण एक रूढिवादी असहिष्णु और कट्टरवादी बादशाह के रूप मे चित्रित किया गया है लेकिन ऐसा नहीं है 50 वर्षों तक अपनी अटल हुकूमत करने वाला औरंगजेब असल में जालिम व क्रूर बादशाह नहीं था। औरंगजेब का जीवन बहुत ही सादा था उसने अपने खजाने को कभी भी अपने लिए इस्तेमाल नहीं किया। वह खजाने पर जनता का हक मानता था तथा उसे जनता की अमानत समझता था। औरंगजेब को विलासिता का जीवन कभी रास नहीं आया इसलिए गद्दी पर बैठते ही उसने दरबार से गायक नृतक व संगीतज्ञों को निकाल दिया था। उसने सुबह राजा के दर्शन और आशीर्वाद प्रथा को भी खत्म किया। दरबार के विलासिता के खर्च में कमी की तथा हजारों दास दासियों की संख्या में भी कटौती की। औरंगजेब अपने राज्यकोष के पैसे से एक निवाला भी नही खाता था बल्कि वह टोपियां बुनकर उन्हें बेचने के लिए देता था। सूफी प्रवचन करता था, संगीत वाद्यय यंत्र बजाकर कुरान की आयतें दूसरी भाषाओं में लिखकर जो भी कमाई करता था उसी से अपना खर्च निकालता था। अपने पिता शाहजहां से भी यही कहा कि आपने खजाने का दुरूपयोग किया है  कारण उसने शहाजहां को कैद में रखा।
औरंगजेब के शासन के अंतिम समय में दक्षिण में मराठों का जोर बढ़ÞÞ गया था। जिनसे निपटने में सेना को सफलता नहीं मिल रही थी। इसलिए सन 1683 में औरंगजेब स्वयं सेना लेकर दक्षिण गया। वह राजधानी से दूर रहता हुआ, अपने शासन-काल के लगभग अंतिम 25 वर्ष तक उसी अभियान में रहा। 50 वर्ष तक शासन करने के बाद दक्षिण के अहमदनगर में 3 मार्च सन 1707 ई में उसकी मृत्यु  हो गई। मृत्यु से पहले औरंगजेब ने खुल्दाबाद के बाहरी छोर पर स्थित रौजा में अपने को दफनाने की इच्छा व्यक्त की थी।  मृत्यु के बाद दौलताबाद में स्थित फकीर बुरुहानुद्दीन की कब्र के अहाते में उसे दफना दिया गया।यहां स्थित औरंगजेब का मूल मकबरा बहुत ही सादगी से बनाया गया था जिसे बाद में अंगे्रजों व हैदराबाद के निजामों ने भव्य रूप दिया।

स्नोडेन ने दिखाया अमेरिका को आईना......


आप और हम इस भ्रम में थे कि सोशल नेटवर्किंग साइटों और ई-मेल आदि पर जो काम और विचारों का आदान-प्रदान हम करते हैं, वह गोपनीय है। एडवर्ड स्नोडेन ने दुनिया को बताया कि कैसे अमेरिका सुरक्षा और आतंकवाद के नाम पर हमारी निजता में दखल दे रहा है। कुछ दिनों पहले तक दुनिया के लिए अनजान एडवर्ड स्नोडेन इतिहास में इसलिए याद किए जाएंगे, क्योंकि उन्होंने दुनिया की सुपर पॉवर कहे जाने वाले अमेरिका का असली चेहरा दुनिया को दिखाया है। अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के लिए तकनीकी सहायक के रूप में कार्य कर चुके 29 वर्षीय  एडवर्ड इस बात के लिए भी जाने जाएंगे कि उन्होंने उच्च शिक्षा नहीं ली, लेकिन कंप्यूटर की अच्छी जानकारी के बल पर सीआईए में वह उन्नति करते कर गए। यूनाइटेड स्टेट कोस्टगार्ड में अधिकारी लॉनिन स्नोडेन तथा क्लर्क मां बेल्तिमोर की संतान एडवर्ड स्नोडेन का जन्म 21 जून 1983 को हुआ था। 1999 में उन्होंने कंप्यूटर में हाईस्कूल डिप्लोमा लेने के लिए प्रवेश लिया, लेकिन बदकिस्मती से वह बीमार हो गए, जिसके चलते वह महीनों तक स्कूल नहीं जा सके। उनकी पढ़ाई एक लोकल कम्यूनिटी कॉलेज से पूरी हुई। 2011 में स्नोडेन ने यूनिवर्सिटी आॅफ लिवरपूल से मास्टर डिग्री हासिल करने के बाद जापानी भाषा में भी दक्षता हासिल की।
हालांकि स्नोडेन 2008 के अमेरिकी चुनाव के दौरान ही यह खुलासा करने वाले थे, जो उन्होंने अब किया है, लेकिन वह देखना चाहते थे कि यदि बराक ओबामा राष्ट्रपति चुने जाते हैं, तो वह अमेरिका की उन नीतियों में बदलाव करते हैं या नहीं, जो चली आ रही हैं और दुनिया के लिए खतरनाक मानी जाती रही हैं। स्नोडेन को निराशा हाथ लगी। ओबामा अपने पूर्ववर्तियों की नीतियों में बदलाव नहीं ला सके। निराश होकर स्नोडेन सीआईए की नौकरी छोड़कर राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी में कांट्रेक्ट लेने  वाली कंपनियों के लिए काम करने लगे। मौका मिलते ही हांगकांग जाकर उन्होंने वह खुलासा करने का कर साहस दिखाया, जिससे वह अमेरिका की आंख की किरकरी बन गए हैं।  
स्नोडने के खुलासे से यह बहस भी शुरू हो गई है कि क्या स्नोडेन ने देश के साथ गद्दारी की है? दरअसल, गद्दारी और बगवात में इतना बारीक अंतर है कि लोग दोनों  को एक-दूसरे का पर्याय समझ लेते हैं। स्नोडेन गद्दार तब होते, जब वह दूसरे देशों के लिए जासूसी कर रहे होते। उन्होंने अमेरिका की उस हरकत का पर्दाफाश किया है, जिसे कोई भी सहन नहीं कर सकता है। इसलिए स्नोडेन बागी हैं, देशद्रोही नहीं। अब देखना है  िक एडवर्ड स्नोडेन को दुनिया का कोई देश राजनीतिक शरण देता है या अमेरिकी ताकत के आगे झुककर उन्हें अमेरिका को सौंप देता है?

Friday, June 21, 2013

दुश्वारियों की बारिश?

ये  बरसात क्यों मेरे लिए
 अच्छी नहीं आई
आंगन में ए गिरती बूंदें
लगती है जैसे बिखरा हो
 कोई शीशा टूटकर,
 बिखरें हों ख्वाब जैसे टकराकर
 हकीकत की जमीन से
भीगी शाम आज मुझे क्यों
 खुशी देने नहीं आई
 अब की ये  बरसात क्यों
अच्छी नहीं आई
 रंगा था कल ही जिसे,
 गिरने लगी है मिट्टी
उस दीवार की
  लेपा था फर्श कल ही
पीली मिट्टी से मैनें
 आज दिखाता है डरावने से चित्र मुझे
 आज कलमा भी तो फर्श पे हो न सकेगा।
सूखे पत्ते कुछ लकड़ियां
सब हो गए हैं नम
कुछ चुन भी लाती यदि
आज एक लौ भी तो मेरे
घर को रोशन न कर सकेगी,
आंच भी तो आज दो रोटी
 मेरे घर पका न पाएगी।
 कहीं जूठन भी तो आज बची न होगी
 सब पानी में मिल गई होगी या
  नाली में बह गई होगी।
 मेरे घर की नाजुक छत भी अब
टपकने लगी है।
इन बूंदों ने एक होकर
मेरे घर को संमंदर बना डाला है।
 गीले तख्त पर बैठा है
 पेट भरने की तलब लिए लाडला मेरा
छुपाए गोद में एक किताब अपनी
 देखता मेरी ओर एक टक,
 लिए आंखों में सवाल
कब खत्म होगी ये
दुश्वारियों की बारिश?

अनोखी दुनिया जादू की....












 क्रिस एंजिल को तो आपने टेलिविजन पर जादू दिखाते हुए देखा ही होगा और हां  हैरी पॉटर की जादुई दुनिया को भला आप कैसे भूल सकते हैं। बच्चे ही नहीं बड़े भी उस फिल्म को देखना नहीं भूलते। यही नहीं आपने स्कूल या फिल्मों में बहुत से मैजिक शो देखे होंगे, लेकिन आप जादू के बारे कम ही जानते होंगे चलिए क्यों न आज कुछ और जानकारी हासिल करें।

जादू दरअसल एक  प्रदर्शन कला है जो  हाथ की सफाई के मंचन द्वारा विशुद्ध या प्राकृतिक साधनों का प्रयोग करते हुए भ्रमजाल की रचना कर दर्शकों का मनोरंजन करती है। जो व्यक्ति इस कला का प्रदर्शन करता है वह जादुगर या ऐंद्रजालिक कहलाता है। आज जिन प्रदर्शनों को हम जादू के नाम से जानते हैं वह संपूर्ण इतिहास के दौरान किए जाते रहे हैं। 1584 में प्रकाशित रेजिनोल्ड स्कॉट की द डिस्कवरी आॅफ विचक्राफ्ट जादू टोनों की खोज पर लिखी गई पहली पुस्तक प्रकाशित की गई थी। इस किताब को 1603 में इसे जेम्स प्रथम के पदारोहण के समय जला दिया गया और बाद में इसे1651 में फिर से प्रकाशित किया गया। 1770 व 80 के दशक में यूरोप व रूस में वैज्ञानिक प्रदर्शनियों की आड़ में कभी कभी ही जादू के करतब प्रदर्शित किया जाता था।
 जादुगरों द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले जादूई प्रभावों के प्रकार को प्रतिबिंति करते नामों से भी पुकारा जाता है जैसे मायावी, बाजीगर, परामनोवैज्ञानिक या बच निकलने वाला कलाकार आदि। इसके अलावा आज के जादूगरों ने कई श्रेणियों को चुनौती देना भी शुरू कर दिया है। इनमें  किसी वस्तु का निर्माण, टोपी से खरगोश निकालना, खाली बाल्टी से सिक्कों की बौछार आदि व गायब करना जिसमें जादुगर किसी वस्तु को गायब करता है। परिवर्तन, किसी वस्तु व्यक्ति को दूर भेजना या स्थान बदलना अथवा उत्तोलन जैसे प्रभाव आदि का इस्तेमाल करते हैं।

  कहां से आया जादू


आधुनिक मनोरंजन का श्रेय एक घड़ी निर्माता ज्यां यूजीन रार्बट हौदिनी को जाता है, जिन्होनें 1840 में पेरिस में एक जादू थिएटर खोला था। उसके बाद ब्रिटिश कलाकार जे एन मैस्केलीन और उसके भागीदार कुक ने 1873 में लंदन में पिकेडिली में अपना खुद का थिएटर, ईजिप्शियन हॉल स्थापित किया जहां वह मंचीय जादू कला का प्रदर्शन करते थे।  एक आम जादूगर के रूप में एक ऊंची टोपी, लंबे लहराते बालों, लंबी दाढी और लंबे कोट वाला व्यक्ति एलेकजेंडर हरमन के नाम से जादू की दुनिया में विश्वप्रसिद्ध है। हरमन एक फ्रांसीसी जादूगर थे और उनकी प्रसिद्ध का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिन्होंने उसे जादू कला काप्रदर्शन करते हएु देखा है वह मानते थे कि उनके द्वारा देखे गए सभी जादूगरों में वह महानतम थे। उसके बाद केवल हौदिनी को  प्रदर्शन व्यवसाय की अच्छी समझ थी और वह प्रदर्शन कौशल में भी महान था। स्क्रैंटन, पेनिसलवेनिया में उन्हें समर्पित एक होदिनी संग्रहालय भी है।

 मार्डन मैजिशियन


मनोरंजन के रूप में जादू आज जादू आसानी से नाटकीय स्थलों विशेषकर टेलिविजन कार्यक्रमों में परिवर्तित हो गया है, जिसमें भ्रम पैदा करने यानी जादू दिखाने के नए अवसर खुले हैं और मंचीयजादू दर्शकों की विशाल संख्या भी है। 20 सदी के प्रसिद्ध जादूगरों में ओकितो, सिकंदर,जापान के शिमाडा, हैरी ब्लैकस्टोन सीनियर जो स्टेज मैजिशियन के रूप में प्रसिद्ध थे, हैरी ब्लैकस्टोन जूनियर, हार्वड थर्स्टन, थिओडोर एनीमैन, कार्डिनी टॉमी वंडर, डौग हेनिंग शामिल थे। 20 और 21 सदी के लोकप्रिय जादूगरों में  डेविड कापरफील्ड जो जादू की दुनिया में 11 बार गिनीज वर्ल्ड रिकार्ड  में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं।  लांस बर्टन, जेम्स रैंडी, पेन और टेलर, डेविड ब्लेन और क्रिस एंजिल शामिल हैं। इनमें से ज्यादातर टीवी जादूगर जीवंत दर्शकों के सामने प्रदर्शन करते हैं।

जादू और धोखाधड़ी


यानी जादू का इस्तेमाल कुछ लोग अपने उद्देश्य पूर्ण करने के लिए भी करते हैं। महान जादूगर हौदिनी अपना अधिकतर समय ऐसे छली तांत्रिकों और जादूगरों द्वारा छलपूर्वक तरीकों का खुलासा करने में लगाते थे। जैम्स रैंडी और चिंतक डैरेन ब्राउन भी अपना काफी समय असामान्य रहस्यात्मक और अलौकिक घटनाओं के दावों का पता लगाने में खर्च करते थे। उदाहरण के तौर पर झाड़फंू क  करने वाले हाथ की सफाई दिखाकर मरीज के पेट से ट्यूमर निकालने का दावा करते थे, जबकि वास्तव में ट्यूमर की जगह मुर्गियों के पेट के अंगों को दिखा देते थे। हाल ही मैं लॉस एंजेल्स में भी दिसंबर 2009 में शैल गेम रिंग का भंडाफोड़ हुआ था।

 किसी को राज बताना ना


पेशेवर जादुगरों के संगठनों में सदस्यता के लिए प्राय: जादूगरों को गंभीरतापूर्वक एक शपथ ग्रहण करनी पड़ती है कि वह जादूगरों के अलावा किसी अन्य व्यक्ति पर अपनी जादू कला का राज प्रकट नहीं करेंगे। कहा जाता है कि जादू के  राज को उजागर करने से जादू खत्म हो जाता है यानी यदि किसी व्यक्ति को जादू का राज बता दिया जाए तो वह इसमें रूचि नहीं लेगा और न ही इसका आनंद उठा पाएगा क्योंकि उसमें रहस्य रोमांच नहीं बचेगा। यदि व्यक्ति को यह मालूम चल जाए कि यह युक्ति इतनी आसान है तो दर्शकों  उसे महत्वहीन मानते हैं और निराश हो जाते हैं। जो भी जादूगर जादू प्रशिक्षण लेने के बाद शपथ ले लेता है वह जादू को अपना पेशा बनाने के लिए स्वतंत्र हो जाता है और उससे यह शपथ निभाने की आशा की जाती है। जादूगरों द्वारा ली जाने वाली यह शपथ कुछ इस तरह होती है।
 ''जादूगर के रूप में मैं शपथ लेता हूं कि मैं किसी भी जादूई  करतब का रहस्य जादूगरों के अलावा किसी भी अन्य व्यक्ति को तब तक नहीं बताऊंगा जब तक कि वह भी इस प्रकार की शपथ नहीं लेता, मैं किसी भी सामान्य व्यक्ति पर किसी जादू का प्रयोग तब तक नहीं करूंगा जब तक कि मैं इससे पहले इस खुद इस जादू का प्रभाव न देख लूं''।
 इस शपथ को लेने के बाद यदि कोईजादुगर किसी कारण वश इस राज को किसी अन्य को बता देता है तो दूसरे जादुगर उसे अन्य जादू नहीं सिखाना चाहते।  कुछ जादुगर इस स्थिति में आ जाते हैं कि वह अपने कुछ जादूई करतबों का राज बता देते हैं। पैन और टेलर अधिकतर इस बात का खुलासा करते हैं कि उनके जादू के पीछे का राज क्या था।

भारत में जादू

कुछ समय पहले तक कोलकाता को जादू का शहर के रूप में जाना जाता था। जादू का सामान भी यही से पूरे देश में जाता था। पी सी सरकार 50-60 के दशक में अपने प्रसिद्ध शो 'इंद्रजाल' के माध्यम से दुनिया भर में अपनी पहचान बनाने वाले एकमात्र जादूगर थे। यही कारण है कि कोलकाता व बंगाल के जादू को आज भी वर्ल्ड फेमस मैजिशियन का दर्जा प्राप्त है। अशोक भंंडारी जादू की दुनिया का जाना पहचाना नाम हैं। अपने हाथों की सफाई का कमाल दिखाकर वह जापान रूस सहित यूरोप के सभी देशों में अपने हुनर का परचम लहरा चुके हैं। महज पांच वर्ष की उम्र में उन्हें चाचा नेहरू पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया तथा 12 वर्ष की उम्र में इंदिरा गांधी और तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा पुरस्कृत किया गया था। पारंपरिक भारतीय जादूगरों में राजकुमार का नाम सबसे पहले आता है। ए भारत के पहले इंडियन बास्केट एक्ट परफॉमर्र और इंडियन रोप ट्रिक शैली के रिकॉर्ड अपने नाम किए हुए हैं। गुजरात के ग्रेट लाल, मध्यप्रदेश के आनंद और उत्तरप्रदेश के ओपी शर्मा को देश के बड़े जादूगरों में गिना जाता है।

 बड़ा रहस्य है जादू का


19 शताब्दी में जादूगरों के लिए जादू सीखने के लिए कुछ ही पुस्तकें थी धीरे धीरे इनकी संख्या को बढ़Þाया गया।  इंटरनेशनल ब्रदरहुड आॅफ मैजिशिन दुनिया का सबसे बड़ा जादू से संबंधित संगठन है जिसे एक मासिक पत्रिका द लिंकिंग रिंग का प्रकाशन करती है।वहीं द सोसायटी आॅफ अमेरिकन मैजिशियंस  सबसे पुराना संगठन है। हूडिनी भी इसके सदस्य रहे तथा इसकी अध्यक्षता भी की । इंग्लैंड के लंदन में द मैजिक सर्कल हैजिसमें यूरोप का सबसे बड़ा जादू संबंधी पुस्तकालय है। इसमें सायक्रेट्स सोसायटी आॅफ मिस्ट्री एंटरटेनर्स भी है जो विशेष रूप से शोधकर्ताओं चिंतकों कहानीकारों व जादूगरों के समक्ष प्रदर्शन करता है। हॉलीवुड में मैजिक कैसल जादूई कला एकेडमी का घर है। हालांकि जादू की युक्तियों पर भी कई पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं लेकिन ए आपको किताबों के ढेर या पुस्तकालय में नहीं मिलेंगी क्योंकि इन्हें कुछ विशिष्ट स्टोर या जादू की बुक्स रखने वाले ही खरीद सकते हैं।

Friday, June 7, 2013

खतरे में राष्ट्रीय पहचान

अगर आपसे पूछा जाए कि हमारा राष्ट्रीय पशु क्या है, तो जवाब में टाइगर का नाम लेते समय आपका सीना भी गर्व से चौड़ा हो जाता होगा। मोर का नाम भी आप बड़े गर्व से लेते हैं, क्योंकि इसका नाम भी हमारे राष्ट्र के साथ जुड़ा है। मगर क्या आपको मालूम है कि ऐसे जो भी नाम हमारे राष्ट्र की पहचान के साथ जुड़े हैं, उनकी हालत अच्छी नहीं है। हॉकी हमारे देश का राष्ट्रीय खेल है, लेकिन अपने ही देश में वह गुमनामी की हालत में है। हमारी राष्ट्रीय नदी गंगा हो या मीठे जल में पाई जाने वाली प्यारी डाल्फिन, दोनों का ही जीवन खतरे में है। हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी है, लेकिन अपने ही देश में हिन्दी बोलने वालों को उतना सम्मान नहीं मिलता जितना अंग्रेजी बोलने वालों को। आखिर राष्ट्र की पहचान के साथ हो रहे इस खिलवाड़ को हम क्यों सहन कर लेते हैं? क्या वजह है कि जो नाम हमारे राष्ट्र की पहचान के साथ जुड़े हैं, उनकी अनदेखी होती है? राष्ट्र की पहचान के साथ हो रहे खिलवाड़ पर पेश है एक रिपोर्ट...
मारे देश में महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा हासिल है। लेकिन इसी मुल्क में कुछ ऐसी भी ताकते हैं, जो उनके विचारों के साथ खिलवाड़ करती हैं और उनके ऊपर कोई कार्रवाई नहीं होती? ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ जैसा मुहावरा भी हमारे देश में ही प्रचलित है? गांधीवाद का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है? जिस गुजरात का साबरमती आश्रम सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने की शिक्षा देता है, उसी राज्य में एक समुदाय विशेष को टारगेट कर नरसंहार किया जाता है और पीड़ित आज भी न्याय के लिए दर-दर भटकने को मजबूर हैं। ब्रिटेन में बापू के सामान की नीलामी होती है और हमारे देश के हुक्मरानों के सिर पर जूं तक नहीं रेंगती।
इसी तरह हमारे देश का राष्ट्रीय खेल हाकी है, लेकिन मुल्क के ज्यादातर बच्चे इसके खिलाड़ियों के नाम तक नहीं जानते। आज यह एक उपेक्षित खेल बनकर रह गया है। वहीं क्रिकेट जो कि एक विदेशी खेल है और जिसका कमोवेश हर खिलाड़ी करोड़पति है, सट्टेबाजी में डूबा हुआ है, लेकिन इस खेल से जुड़े खिलाड़ियों को हमारे देश में सबसे ज्यादा सम्मान मिलता है। कुल मिलाकर भारत के राष्ट्रीय प्रतीकों की खस्ताहालत के बारे में जितना भी लिखा जाए, कम है। हमारे राष्ट्रीय प्रतीकों पर दुनिया भर में बसे हुए अलग-अलग पृष्ठभूमि के भारतीय गर्व करते हैं। ए प्रतीक हर भारतीय के दिल में गौरव और देशभक्ति की भावन का संचार करते हैं, लेकिन इन राष्ट्रीय प्रतीकों का संरक्षण भी आज उतना ही जरूरी है।

किताबों में ही नाचेगा मोर

मोर भारत का राष्ट्रीय पक्षी है। अपने खूबसूरत पंखों के कारण यह जगत प्रसिद्ध है। मोर की पूंछ में करीब 200 लंबे पंखों का बेहद सुंदर गुच्छा होता है। नर मोर मादा से अधिक खूबसूरत होता है। इसकी पूंछ ब्रांज-ग्रीन रंग की होती है। यही खूबसूरत पंख पाने के लिए शिकारी इस राष्ट्रीय पक्षी का शिकार करते हैं। फसलों को नुकसान से बचाने के लिए भी कई स्थानों पर मोरों को जहर देकर मार दिया जाता है। इन सब वजहों से मोरों की दिन-प्रतिदिन घटती संख्या आज चिंता का विषय बन गई है। कौशांबी में धुमाई के जंगलों में  हजारों की तादाद में मोर हैं। जंगल में तालाब हैं, मगर गर्मी के दिनों में तालाब सूख जाते हैं। इस कारण भीषण गर्मी में प्यास से बड़ी संख्या में मोरों की मृत्यु हो जाती है। 2009 में भीषण गर्मी के कारण ही यहां करीब सौ से भी अधिक मोरों की मृत्यु हो गई थी। हमारे यहां मोर को  धार्मिक मान्यता प्राप्त है। यह एक राष्ट्रीय पक्षी भी है। इसकी सुरक्षा के लिए वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 भी बनाया गया, जिसके बाद यदि कोई मोर का शिकार करता है, तो उसे जेल भी हो सकती है, बावजूद इन सबके अभी भी आए दिन मोरों के मारे जाने की खबरें सुनाई पड़ती हैं।

कैसे देखेंगे डॉल्फिन डाइव्स

डाल्फिन हमारा राष्ट्रीय जलचर है। यह शुद्घ और मीठे पानी में ही जीवित रह सकती है। यह बहुत समझदार जीव है और बहुत जल्दी मनुष्यों से घुलमिल जाती है। शिकार और प्रदूषण के चलते डॉल्फिन पर भी खतरा मंडरा रहा है। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत डॉल्फिन का शिकार करना और इसे नुकसान पहुंचाना भी एक आपराध है। आरोपी को जेल भी हो सकती है। गंगा में पाई जाने वाली समझदार और शांत डॉल्फिन के संरक्षण को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2009 में भारत सरकार ने इसे राष्ट्रीय जलचर का दर्जा दिया था। असम सरकार ने इसे 2008 में ही राजकीय जलजीव घोषित कर दिया था। डॉल्फिन के शिकार पर यूं तो 1972 से ही प्रतिबंध है, मगर फिर भी इसकी संख्या में वृद्धि नहीं हो पाई। 435 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र के चंबल अभयारण्य में केवल 108 डॉल्फिन ही शेष हैं। चीन जापान और कोरिया में दवाओं के रूप में इसके उपयोग ने डॉल्फिन पर मंडराते संकट को और भी गहरा दिया है। इसकी चर्बी से तेल निकाला जाता है जिसके कारण इसकी मांग कोरियाई देशों में हमेशा बनी रहती है। यही कारण है कि यह अवैध तस्करी का हिस्सा भी बन गई है। वन अधिकारियों की देखरेख में गंगा से लेकर चंबल तक की सहायक नदियों में डॉल्फिन की गिनती शुरू की गई है, लेकिन इनकी संख्या अभी तक तय नहीं हो पाई है। 

प्रदूषण की भेंट चढ़ती गंगा

गंगा भारत की सबसे पवित्र नदी होने के साथ ही राष्ट्रीय नदी भी है। हिमालय स्थित गंगोत्री से उत्पन्न गंगा पहाड़ों, घाटियों और मैदानों में 2,510 किलोमीटर की दूरी तय करती है और बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। गंगा के किनारे कई तीर्थ हैं, जहां करोड़ों श्रद्धालु पूजा पाठ करते हैं। गंगा कई राज्यों के लिए जीवनदायनी नदी है, मगर बढ़Þते प्रदूषण के कारण यह अब कचरे की नदी में तब्दील होती जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक प्रतिदिन 1.3 अरब लीटर अपशिष्ट गंगा में बहाया जाता है, साथ ही गंगा के आसपास की फै क्ट्रियां भी इसे प्रदूषित कर रही हैं। प्रतिदिन लगभग 260 मिलियन लीटर औद्योगिक अपशिष्ट गंगा में प्रवाहित होता है। पिछले दिनों वाराणसी में हुए एक निरीक्षण के दौरान 100 मिलीलीटर जल में 50 हजार हानिकारक जीवाणुओं की संख्या पाई गई, जो नहाने के पानी के लिए सरकारी मानकों से 10 हजार प्रतिशत ज्यादा थी। गंगा को स्वच्छ करने की योजना के अंतर्गत वर्ष 1985 से 2000 के बीच गंगा एक्शन प्लान एक और दो के क्रियान्वयन पर सरकार लगभग एक हजार करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है, मगर गंगा अब भी प्रदूषण की गिरफ्त से नहीं छूट रही है। गंगा में मछलियों की करीब 140 प्रजातियां पाई जाती हैं। प्रदूषण की वजह से ए भी विलुप्त होती जा रही हैं।

2022 तक खत्म हो सकते हैं बाघ

बाघ को शाही बंगाल टाइगर भी कहा जाता है। फुर्तीले व अपार शक्ति के कारण बाघ शक्ति का प्रतीक है। इसे भारत का राष्ट्रीय प्रतीक होने का गौरव हासिल है। आठ किस्मों में से शाही टाइगर उत्तर पूर्व को छोड़कर भारत के पड़ोसी देशों जैसे नेपाल, भूटान और बांग्लादेश में भी पाया जाता है। भारत के राष्ट्रीय पशु बाघ को बचाने के लिए अप्रैल 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर परियोजना शुरू की गई थी। अब तक इस परियोजना के अंतर्गत 27 बाघ के आरक्षित क्षेत्र भी बनाए गए, जिनमें 37,761 वर्ग किमी का क्षेत्र शामिल हंै। इस समय देश में 1706 बाघ मौजूद हैं, जिसमें 235 उत्तराखंड में हैं। वाइल्डलााइफ संस्था का अनुमान है कि दुनिया भर में अब केवल 3,200 बाघ ही बचे हैं। वैसे सबसे ज्यादा बाघ भारत में हैं। संस्था के मुतबिक अगले 12 वर्ष के भीतर दुनिया से बाघों का अस्तित्व मिट सकता है। स्वीडन की एक संस्था 2022 तक बाघों की संख्या को बढ़Þाने का प्रयास कर रही है।

कमल को दलदल की तलाश

हिंदु मान्यता के अनुसार कमल धन की देवी लक्ष्मी का प्रिय फूल है। यह कीचड़ में खिलता है, जो यह संदेश देता है कि विपरीत परिस्थिति में भी अच्छे कार्य हो सकते हैं। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में एक ध्वज में आठ कमल के फूलों का प्रयोग किया गया, जो आठ राज्यों का प्रतिनिधित्व करते थे। यही कारण है कि इसे भारत के राष्ट्रीय फूल के रूप में स्वीकार किया गया है।  यह पुष्प भी दलदलीय यानी नम भूमि में ही उगता है। लगातार नम भूमि की हो रही बर्बादी के कारण इस राष्ट्रीय फूल पर भी खतरा मंडराने लगा है।

 कहानी न बन जाए बरगद

सभी पेड़ों से हटकर बरगद हमारा राष्ट्रीय पेड़ है। इस पेड़ की नीचे की ओर जाती और जमीन में धंसी जटाएं अपने गौरवशाली इतिहास से जुड़े होने का संदेश देती हैं। इसकी शाखाएं हमेशा परिवर्तन और विकास के लिए प्रेरित करती हैं। बरगद सबसे लंबी उम्र वाला वृक्ष है। दुनिया का सबसे विशाल और उम्रदराज बरगद कोलकाता का द ग्रेट बनियान है। इसकी उम्र 250 साल बताई जाती है। राष्ट्रीय पेड़ होने के नाते बरगद को भी इसी तरह संरक्षण की आवश्कता है, जिस प्रकार अन्य राष्ट्रीय प्रतीकों की, क्योंकि  बढ़Þने, जमीनी दोहन आदि के चलते बरगद के नए पेड़ों को उगाना काफी मुश्किल है। बरगद के पेड़ को बढ़Þने के लिए बड़ी भूमिका की आवश्यकता होती है, मगर मानव की जरूरतों के चलते इतनी भूमि मुश्किल से ही बच पाती है। ए फलते-फूलते बरगद या तो काट दिए जाते हैं या नष्ट कर दिए जाते हैं।

राष्ट्रभाषा की चिंता

भले ही हमारी राष्ट्र भाषा हिंदी दुनिया में बोली जाने वाली भाषाओं में दूसरे स्थान पर हो, मगर धीरे-धीरे यह अपनी धाक खोती जा रही है। 14  सितंबर 1949 को भारतीय संविधान ने देवनागिरी लिपि में लिखी गई हिंदी भाषा को अखंड भारत की प्रशासनिक भाषा के रूप में स्वीकार किय था। प्रत्एक वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। हिंदी विश्व की करीब 3,000 भाषाओं में से एक है। कहने को हिंदी हमारी मातृभाषा है मगर जब प्रतियोगिता के दौर में हिंदी की तुलना की जाती है तो कहीं न कहीं यह अंग्रेजी भाषा से कमतर ही नजर आती है। आज भले ही स्कूल कॉलेज के किसी आयोजन में हिंदी  दिवस के उपलक्ष में कार्यक्रम किए जाते हों मगर जब बात बोलचाल और पढ़ाई की आती है तो अंग्रेजी भाषा को ही प्राथमिकता दी जाती है। इसी तरह युवाओं के बीच हिंदी से ज्याद अंग्रेजी भाषा ही लोकप्रिय होती जा रही है। यही कारण है कि हिंदी भाषा के संरक्षण पर भी प्रश्न चिन्ह लगने लगा है। 

Saturday, June 1, 2013

जहाज तोड़ते हाथ.......


मजदूरों की मजबूरी शिप ब्रेकिंग..........


ये  दुनिया  के सबसे बड़े जहाज कब्रिस्तान है। साथ ही यहां नौकरी करने वालों के लिए भी यह सबसे ज्यादा खतरनाक नौकरी भी है। जी हां, हम बात कर रहे हैं ऐसे स्थान की जहां खराब हुए पानी के जहाजों को नष्ट किया जाता है। यहां जहाजों को तोड़ा और काटा जाता है। यहां आपको हाथों में छोटे छोटे औजार लिए सैंकड़ों मजदूर मिल जाएंगें। शिप ब्रेकिंग यार्ड के इन मेहनतकश मजदूरों के केवल 188 रुपए प्रतिदिन मिलते हैं, लेकिन यहां काम करने वालों की कमी नहीं हैं। इन मजदूरों के साथ बड़े बड़े क्रुज लाइनर इन जहाजों को नष्ट करने में लगे रहते हैं।

जहाजों के बड़े कब्रिस्तान

दुनिया भर में जहाजों की रीसईकलिंग के लिए उन्हें तोड़ा व काटा जाता है। दुनिया के सबसे बड़े शिप ब्रेकिंग यार्ड्स में सबसे पहला नाम भारत का है यहां  गुजरात के भावनगर का अलंग शिपयार्ड जहाजों का सबसे बड़ा कब्रिस्तान है। बांग्लादेश का चिटागॉन्ग शिप बे्रकिंग यार्ड व पाकिस्तान का कराची समुद्री तट पर स्थित गदानी शिप ब्रेकिंग यार्ड दूसरे नंबर पर आते हैं। चाईना के जिंगयांग प्रांत में स्थित चेंगजिआंग शिप ब्रेकिंग यार्ड पर भी बड़ी संख्या में जहाजों को तोड़ने का कार्य होता है। तुर्की के अलियागा व यूनाइटेड स्टेट के इंटरनेशनल शिपब्रेकिंग लि. ब्राउनसलि पर भी हजारों एकड की भूमि पर पानी के जहाजों को काटने व तोड़ने का कठिन कार्य किया जात है।

बिना किसी सुरक्षा के होती है शिप ब्रेकिंग

चीन तुकी व अमेरिका में शिप बे्रकिंग में भले ही मशीनों का सहारा लिया जाता है मगर आधे से ज्यादा कार्य मजदूरों द्वारा ही पूरा किया जाता है। जहाजों को तोड़ते समय हेलमेट, सुरक्षा वाले जूते, काला चश्मा, मास्क, हैंड ग्लाव जैसे प्रोटेक्शन इक्वीपमेंट भी इन्हें नसीब नहीं होते हैं। यार्ड में आने वाले जहाजों का एक बड़ा हिस्सा गैस कटर की सहायता से तोड़ा जाता है जिसके दौरान दुघर्टना होने से कई मजदूरों की मौत भी हो जाती है। इन मजदूरों के कोई लिख्ति दस्तावेज न होने की वजह से उन्हें कोई मुआवजा भी नही मिलता है। दिन भर ए मजदूर मशीनों और मसल्स की ताकत से अपने घरों से कई गुना बड़ें इन जहाजों से लोहा निकालने का काम करते हैं। इन मजदूरों की मौत हो जाती हैं, हाथ-पंव जख्मी हो जाते हैं और मांसपेशिया जवाब दे जाती हैं, लेकिन काम है कि कभी नहीं रुकता।

बुरी है मजदूरों की दशा 


 शिप ब्रेकिंग क काम करने वाले मजदूर भी दयनीय स्थिति में हैं। पानी के बड़े बड़े जहाजों को तोड़ने वाले अधिकतर मजदूर छोटी बस्तियों में रहते हैं। जिन हालातों में ए मजदूर इन बड़े जहाजों को तोड़ने का कार्य करते हैं, शायद ही कोई व्यक्ति इस कार्य को कर पाए। लेकिन मजबूरी के चलते बहुत से मजदुरों ने इसी कार्य को अपना पेशा बनाया है। इन मजदूरों को बिना किसी ठोस प्रोटेक्शन इक्विपमेंट की सहायता के यह कार्य करना पड़ता है। विभिन्न प्लॉट्स में बंटे शिप बे्रकिंग यार्ड में तकरीबन 6 से10 हजार मजदूर रोजाना की कड़ी मेहनत के बाद दो वक्त की रोटी हासिल कर पाते हैं। यही नहीं ए मजदूर यहां बिना किसी मूलभूत सुविधा के रहते हैं। पीने के पानी की कमी, शौचालय की अव्यवस्था, छोटी गलियों में रहने वाले इन मजदूरों को आठ से दस की संख्या में छोटे झोपड़ों में रहना पड़ता है। शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति इनकी जागरूकता बिल्कुल न के बराबर है। बदतर हालत में जिंदगी जीना अब इन मजबूरी बन गई है।  इन मजदूरों के जीवन पर ' इनटू द ग्रेवयार्ड ' नाम की एक बीस मिनट की डाक्युमेंट्री बनाई गई है, जो काफी हद तक मजदूरों की दशा बयां करने में  सफल रही है।

पर्यावरण के लिए चिंता का विषय

गुजरात का अलंग एशिया में पुराने जहाज काटने का सबसे बड़ा केंद्र है। पिछले कुछ समय से यह बंदरगाह दुनियाभर में पर्यावरण की चिंता करने वालों के निशाने पर है, लेकिन वहां पहुंचने पर पता चला कि कहानी कुछ और ही है। इस बंदरगाह की वजह से पूरे भावनगर की जीवनशैली ही बदल गई है। पिछले चार सालों में यहां का व्यापार 70 प्रतिशत तक कम हो गया। अलंग शिप ब्रेकिंग उद्योग इस समय बुरे दौर से गुजर रहा है। तीन महीने से किसी जहाज को काटने का आदेश नहीं मिला है। गुजरात मेरीटाइम बोर्ड (जीएमबी) ने भावनगर में अलंग के शिपयार्ड के बुनियादी ढांचे और प्रौद्योगिकी के उन्नयन में सहयोग लेने के लिए जापान के साथ एक करार किया है। जीएमबी अलंग में यार्ड को अंतरराष्ट्रीय मानकों वाला बनाना चाहता है। इसके लिए उसे वित्तीय और तकनीकी मदद की जरूरत है।

Monday, May 13, 2013

आसमां भी मिल जाएगा उड़कर तो देख ...............


 अपने हालात- ए- जिंदगी से लड़कर तो देख
 आसमां भी मिल जाएगा उड़कर तो देख ।

 क्यों दुनिया से यहां-वहां लड़ता फिरता है
 खुद से आगे भी कभी निकलकर देख।

ठोकर खाकर उठ जाना कोई नई बात नहीं,
 गिर किसी नजर से फिर संभलकर तो देख।

 वक्त से आगे निकलना तो बड़ी बात हुई,
दो कदम वक्त के साथ ही चलकर तो देख।

 जो भी मिलता है हमें यूं लगे मिला है पहले भी,
 अनजान कहता है मगर इस दफ़ा मिलकर तो देख।

 तूने जिसे दीवार पर लगाई थी कभी अपनीतस्वीर,
 हो गए कितने ही दिन चलके वही घर तो  देख।

Saturday, May 11, 2013

भ्रष्टाचार के बीच शहर की चिंता


सलीम अख्तर सिद्दीकी
वह चाय की दुकान उस बिल्डिंग के पास थी, जहां शहर का विकास कराने वाले लोग बैठते थे। मैं भी उस बिल्डिंग में अपने किसी काम के लिए गया था। पता चला कि संबंधित बाबू अपने किसी मित्र के साथ चाय पीने गए हैं। मैं उनको ढूंढ़ता हुआ उस चाय की दुकान का हिस्सा बन गया था, जहां एक कोने में टीवी चल रहा था। उस दुकान पर बिल्डिंग में काम करने वाले कर्मचारी आते थे या मुझ जैसे लोग, जो कभी वक्त गुजारने के लिए, तो कभी संबंधित अधिकारी को ढूंढ़ते हुए पहुंचते थे। मैंने दुकान में चारों ओर नजर दौड़ाई, लेकिन वह अधिकारी मुझे कहीं नजर नहीं आए। मैंने उनका इंतजार वहीं करने का इरादा किया और वक्त गुजारी के लिए चाय का आॅर्डर दिया। मैंने वहीं एक सीट संभाली और टीवी पर चलने वाली खबरों पर ध्यान केंद्रित कर दिया। मेरी सीट के बराबर में ही दो सज्जन बैठे हुए थे। उनकी बातचीत से पता चल रहा था कि उनमें एक किसी वार्ड का पार्षद और दूसरा ठेकेदार था, जो पार्षद के इलाके में विकास कार्य करा रहा था। ठेकेदार पार्षद से किए गए काम को ओके कर देने का आग्रह कर रहा था। पार्षद का कहना था कि जब तक मेरा कमीशन नहीं मिलेगा, काम पास नहीं करूंगा। ठेकेदार का कहना था कि इलाके के लोगों ने घटिया काम नहीं होने दिया, इसलिए मुझे ज्यादा फायदा नहीं हुआ, तो कमीशन कैसे दे दूं। आखिरकार दोनों में सहमति यह बनी कि जितना कमीशन तय हुआ था, उससे आधा कमीशन दिया जाएगा और इसकी एवज में पार्षद काम पास कर देगा। दोनों के चेहरों पर इत्मीनान के भाव आए। एक बार फिर चाय का आॅर्डर दिया गया। दोनों ने अपना ध्यान टीवी पर चलने वाली खबरों पर लगा दिया। न्यूज चैनल हजारों करोड़ रुपयों के घोटाले का पर्दाफाश होने की खबर ब्रेक कर रहा था। पार्षद ने खबर पर प्रतिक्रिया दी, ‘देख लेना यह नेता देश को बेचकर खा जाएंगे।’ ठेकेदार ने गर्दन हिलाकर उसका समर्थन किया। मुझे दुकान में दाखिल हुआ, वह अधिकारी दिखाई दिया, जिसका मैं इंतजार कर रहा था। वह सीधा पार्षद और ठेकेदार के पास गया और बोला, ‘क्यों, हो गया आप दोनों को सेटेलमेंट?’ दोनों ने एक साथ गर्दन हिलाकर हां कहां। अधिकारी ने दोनों को नसीहत दी, ‘देखो मिलजुल कर काम निकला लेना चाहिए। इस काम में नुकसान हो गया, तो क्या आगे किसी काम में नुकसान पूरा कर लेना। हर क्षेत्र के लोग इतने जागरूक नहीं होते कि इस पर ध्यान दें कि उनके इलाके में काम कैसा हो रहा है?’ अधिकारी का ध्यान टीवी पर चलती हुई भ्रष्टाचार की खबर पर गया और बुदबुदाया, ‘पता नहीं इस देश का क्या होगा?’

क्लासिक कारों का शहर हवाना..........

 
आपने विंटेज कार रैली के दौरान पुरानी से पुरानी कारों को देखा होगा। लेकिन हवाना ऐसा अकेला शहर है जहां आप शहर के एक कोने से दूसरे कोने तक 1940 या 50 के दशक की पुरानी अमेरिकी कारों में सफर कर सकते हैं। आपको जानकर हैरानी जरूर होगी मगर क्यूबा की राजधानी हवाना में विदेशी पर्यटकों को लुभाने के लिए वहां के टैक्सी ड्राइवर अमेरिकी कार, अमेरिकी कार की आवाज लगाते नजर 
आएंगे।

हवाना का आकर्षण हैं ये कारें 

दरअसल इतने पुरानी अमेरिकी कारों की सैर क्यूबा के सबसे ज्यादा लोकप्रिय आकर्षणों में गिनी जाती है। क्यूबा के स्थानीय लोग इन कारों को आहलमैनद्रोहनेह्स कहकर पुकारते हैं, जिसका अर्थ अंडाकार अखरोट होता है। अब यह नाम इन्हें क्यों दिया गया यह भी हम आपको जरूर बताएंगे। इन कारों के गोलाकार होने के कारण इन्हें यह नाम दिया गया। उस समय अधिकतर कारें  समुद्री जहाजों की तरह धीरे धीरे सड़क से गुजरा करती थीं। आपको ए कारें भले ही पुरानी लगें, मगर दुनिया भर में इन कारों के पशंसकों की भरमार है।

बची थी सिर्फ यही कारें

ए कारें क्यूबा में क्यों हैं, यह जानना भी जरूरी है। दरअसल फिदेल कास्त्रो के सत्ता में आने के बाद क्यूबा को सारी दुनिया से अलग कर दिया था। बाहर से वाहनों का आयात बंद हो गया था। ऐसे में पुरानी कारों का इस्तेमाल क्यूबा के निवासियों के लिए जरूरी हो गया था। क्यूबा में उस वक्त समय जैसे 1960 में ही ठहर गया था।

क्लासिक कारों का म्यूजियम

जो कार आपने कभी किसी पुरानी अंग्रेजी फिल्म में देखी होगी या किसी चित्र में देखी होगी, क्यूबा में आप उस कार के सफर का मजा हकीकत में ले सकते हैं। हवाना में प्लेमॉउथ शैवर्ले, ओल्ड्स मोबाइल, डोज, कैडिलैक जैसी पुराने मॉडल की ये गाड़ियां आपको सड़कों पर दौड़ती नजर आ जाएंगी। हवाना को एक अमेरिका कारों का संग्रहालय भी कहा जाता है, क्योंकि ए कारें काफी समय से हवाना के दैनिक जीवन का हिस्सा रही हैं।

नहीं मिलते कलपुर्जे भी

हवाना की सड़कों पर पर्यटकों के पर्यटन का मजा दोगुना करने वाली इन कारों को उत्पादन भी कब का बंद हो चुका है मगर हवाना की सड़कों पर ए कारें पचास वर्षों से भी ज्यादा समय से चल रही हैं। हालांकि वर्तमान में इन कारों के कलपुर्जे मिलना भी संभव नहीं हैं मगर फिर भी क्यूबा निवासी किसी न किसी तरीके से इनकी मुरम्मत करके या अन्य कारों के पुर्जे व इंजन की सहायता से इन्हें चला ही लेते हैं। इन कारों में अधिकतर कारों को अब टैक्सियों के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है, लेकिन फिर भी हवाना में पहुंचे पर्यटक इन कारों में सफर किए बिना वापस नहीं जाते हैं।

मजबूत इरादे के इमरान खान....

11 मई को दैनिक जनवाणी में प्रकाशित
उनका नाम इमरान खान नियाजी है। उन्हें लोग एक बेहतरीन क्रिकेटर के रूप में पहचानते हैं। लेकिन इससे इतर उनकी नई पहचान एक सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता की भी बनी है। वह आजकल इसलिए चर्चा में नहीं हैं कि वह एक चुनावी सभा के दौरान लिफ्ट से गिरकर उसी अस्पताल में भर्ती हैं, जो उन्होंने अपनी मां शौकत खान की याद में लाहौर में बनवाया था, बल्कि इसलिए हैं कि क्रिकेट के मैदान में मजबूत इरादों से अपनी टीम को जिताने वाले वाले इमरान कड़े संघर्ष के बाद राजनीति में भी मजबूत बनकर उभरे हैं। एक चुनावी सर्वे कहता है कि वह पाकिस्तानी अवाम के दूसरे सबसे ज्यादा पसंदीदा राजनेता बनकर उभरे हैं।
शौकत खानम और इकरमुल्लाह खान नियाजी के पुत्र इमरान युवावस्था में शांत और शर्मीले थे। उन्होंने लाहौर में ऐचीसन कॉलेज कैथेड्रल स्कूल और इंग्लैंड में रॉयल ग्रामर स्कूल वर्सेस्टर में शिक्षा ग्रहण की। 1972 में उन्होंने केबल कॉलेज आॅक्सफोर्ड में दर्शन राजनीति और अर्थशास्त्र के अध्ययन के लिए दाखिला ले लिया, जहां उन्होंने राजनीति में दूसरा और अर्थशास्त्र में तीसरा स्थान प्राप्त किया था। 16 मई 1995 में उन्होंने जेमिमा गोल्डस्मिथ को शरीक-ए-हयात बनाया। दोनों की शादीशुदा जिंदगी ज्यादा दिन नहीं चल पाई। इसकी वजह यह थी कि जेमिमा पाकिस्तानी माहौल में अपने आपको नहीं ढाल पार्इं। 2004 में दोनों के बीच अलगाव हो गया।
वह 1971 से1992 तक पाकिस्तान क्रिकेट टीम के लिए खेले। 39 वर्ष की आयु में उन्होंने पाकिस्तान की प्रथम और एकमात्र विश्वकप जीत में अपनी टीम का नेतृत्व किया था। 1992 में क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद उन्होंने अपना लक्ष्य सामाजिक कार्य को बना लिया। अपनी मां शौकत खानम के नाम पर ट्रस्ट की स्थापना वह 1991 में ही कर चुके थे। उन्होंने ट्रस्ट की ओर से पाकिस्तान को पहला और एकमात्र कैंसर अस्पताल दिया। इसके निर्माण के लिए उन्होंने दुनियाभर से पैसा जमा किया।
25 अप्रैल 1996 को इमरान खान ने न्याय, मानवता और आत्म सम्मान के नारे के साथ पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ यानी पीटीआई नाम से अपनी राजनीतिक पार्टी की स्थापना की। शुरुआती दौर में उन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया। इसीलिए पिछले आम चुनाव में उनके सभी उम्मीदवार हार गए थे। मजबूत इरादों के इमरान खान ने हिम्मत नहीं हारी और मुसलसल जद्दोजहद के बाद उन्होंने राजनेता के रूप में अपना कद लगातार बढ़ाया। उनके समर्थकों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। उनके समर्थकों में महिलाएं और युवा हैं, जो यह सोचते हैं कि इमरान खान पाकिस्तान को उन झंझावतों से निकालने में सक्षम हैं, जिनसे पाकिस्तान आज दो-चार है।

Saturday, April 6, 2013

चंद अशआर......


बेटी ने छोड़ा जब मां का आंगन तो एहसास हुआ,
 फूल कोई भी हो शाख का नहीं होता।
 कि निभाने हंै कई किरदार इस नाटक के अभी
 इक शख्स का सौ रूपों में ढलना आसां नहीं होता।
हंसने भी नहीं देता रोने भी नहीं देता
ये दिल हमें किसी का भी होने नहीं देता
 तुम मांगते हो मुझ से मेरी ख्वाहिश
 बच्चा तो कभी अपने खिलौने नहीं देता।
 होली तो चली गई मगर कुछ पंक्तियां ने एक पिता की लाचारी को कुछ यूं कुरेदा.......

 उस नादां पर छाई थी, होली की खुमारी
 कल पप्पू मुझसे मांग रहा था पीतल की पिचकारी
 लाने को तो ला दूंगा मैं, मगर कल खाने को मांगेगा
 तो क्या दूंगा मैं।
 सूखे फूल, कागज की नाव, कुछ तितलियों के पर
 लौटा गया  कहकर कि अमानत किसी की रखता नहीं हूं मैं,
 कोई बतलाए कि बचपन की मोहब्बत  में सियासत नहीं होती।

Monday, March 11, 2013


क्रांति होने में समय लगता है

नका नाम इरोम शर्मिला है। घर में प्यार से उन्हें चानू कहा जाता है, तो उनकी अदभ्य साहस के चलते उन्हें ‘आयरन लेडी’ भी कहा जाने लगा। गांधीवाद में यकीन रखने वाली इरोम की जिंदगी एकाएक उस दिन बदल गई, जब सन 2000 में मणिपुर की राजधानी इंफाल से 10 किलोमीटर दूर मालोम गांव में 10 लोगों को उग्रवादी होने के संदेह में सुरक्षा बलों ने गोलियां चलाकर मार डाला। इरोम  को उस हत्याकांड ने इतना झझकोरा कि उन्होंने पूर्वोत्तर राज्यों में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफ्सपा) हटाने के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिया। तमाम कोशिशों के बाद उन्होंने अपना अनशन खत्म नहीं किया तो उन्हें हिरासत में लेकर मुंह में नली डालकर उससे भोजन दिया जा रहा है। यह सिलसिला पिछले 12 साल से जारी है।
इरोम इस सप्ताह तब एक बार फिर चर्चा में आर्इं, जब दिल्ली की एक अदालत ने उन पर खुदकुशी करने के प्रयास के आरोप तय कर दिए। उल्लेखनीय है कि साल 2006 में अफ्सपा को हटाने को लेकर उन्होंने जंतर मंतर पर अनशन किया था, तब उन पर खुदकुशी करने के प्रयास की धारा 309 का मुकदमा दर्ज किया गया था। ऐसा नहीं है कि शर्मिला अकेली हैं। देश के लगभग आधा दर्जन मानवाधिकार संगठन उनके समर्थन में हैं। लेकिन जिस तरह से वह 12 साल से एक दमनकारी कानून को खत्म करने के लिए आमरण अनशन पर हैं, उसे देखते हुए उन्हें ज्यादा समर्थन नहीं मिल रहा है।
 शर्मिला ने पिछले बारह सालों से अपनी मां का चेहरा नहीं देखा है। वह कहती हैं कि मैंने मां से वादा किया था कि जब तक अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लूंगी, तब तक मुझसे मिलने मत आना। उनकी मां ने भी उन्हें अनशन पर बैठते समय ही आखिरी बार देखा था। वह नहीं चाहतीं कि मेरी बेटी मुझे देखकर कमजोर पड़ जाए और उसका मिशन अधूरा रह जाए। इरोम शांति चाहती हैं, हिंसा नहीं इसलिए वह अहिंसक तरीके से आंदोलन चलाकर अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं। विशेष कानून हटाने की उनकी दशक पुरानी मांग पर सरकार की धीमी प्रतिक्रिया के बारे में इरोम ने कहना है कि क्रांति होने में समय लगता है। मैं भी एक इंसान हूं, जो शांति एवं न्याय चाहता है।
40 साल की इरोम की लड़ाई कितनी लंबी चलेगी, कोई नहीं जानता। लेकिन वह उम्मीद करती हैं कि महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन की तरह चलाए जा रहे उनके आंदोलन भी भरपूर समर्थन मिले। उनका कहना है कि वह एक साधारण महिला हैं और जिंदगी से प्यार करती हैं। अपनी जिंदगी खत्म करना नहीं चाहती। उन पर खुदकुशी के आरोप भले ही तय कर दिए गए हों, लेकिन उनका हौसला टूटा नहीं है। वह अब कहती हैं कि मैं तब ही खाना खाऊंगी, जब अफ्सपा खत्म हो जाएगा, नहीं तो भोजन की नली फेंक दूंगी।