Sunday, December 21, 2014

खिड़की से मेरी चांद.......

यूं ही नहीं आता फलक पर 
सुनहरा चांद,
 कोई है जो रोपता है
रोशनी का बीज क्षितिज के उस पार,
कोई है जो सींचता है,
हर रोज नियम के साथ,
बुनता है रेशा-रेशा
किरणों का कोई बांध,
तब
उभरता है अर्श पर
बनके आधा सा टुकड़ा चांद,
कोई है जो सिखाता है
अंगुली पकड़कर चलना इसे,
कोई है जो गोद में लेकर दिखाता है
दुनिया की राह,
कोई है जो दुलार देकर उसे
कायनात को सौंप देता है।

तभी तो हर दिशा में दौड़ता, मुस्कुराता,
अठखेलियां करता हुआ,
झांका करता है हर रोज,
खिड़की से मेरी चांद। 

                       -डिम्पल सिरोही

एक सुरीला कलाम सुनाती है खामोशी,





एक सुरीला कलाम सुनाती है खामोशी,
सन्नाटों में जब गुनगुनाती है खामोशी।

लफ्ज नाकाम रहे कहने में जिसे मुद्दतों,
वो बात कह के चली जाती है मुझसे खामोशी।


सांझा करने लगी हूं राज-ए-दिल इसी से अब,।
गुफ्तगू करने लगी है मुझसे खामोशी।


हो गई हूं और भी करीब अपने ,
मुझको मेरी पहचान सिखाने लगी है खामोशी।


ये शोर दे सका न मुझे कुछ अश्क के सिवा
बस एक मासूमियत से पेश आती है खामोशी। 

                                          -डिम्पल सिरोही

पुरूष दिवस पर बधांईयां न मिलने की टीस

 पुरूष दिवस पर बधांईयां न मिलने की टीस

जैसे ही सर्दियां शुरू होती हैं तो पड़ोसी मिश्रा जी अक्सर सुबह के वक्त लॉन में आकर धूप में पड़ी कुर्सियों पर बैठकर ही अखबार पढ़ते हैं। इस दौरान कई बार वह चाय की फरमाईश भी कर देते हैं। दरअसल, वह अपनी पत्नी के साथ रहते हैं,  उनके एक बेटे की एक्सीडेंट में मौत हो गई और दूसरा विदेश गया जो कभी लौटकर नहीं आया। हालांकि वह एक खुशमिजाज़ व्यक्ति हैं, लेकि
न आज तड़के ही मिश्रा साहब अपने अर्धांगिनी के साथ लॉन में आराम कुर्सी पर बैठे अखबार को बड़ी खा जाने वाली नजरों से देख रहे थे। हमने पूछा क्या हुआ मिश्रा सहाब, खबरों पर काहे खीज रहें हैं या फिर आज सुबह की चाय नसीब नहीं हुई। हमारा इतना कहना था मिश्रा जी ने बुदबुदाना शुरू कर दिया। अरे मिश्रा जी, गुस्सा करना आपकी सेहत के लिए अच्छा नहीं है वैसे भी आप दिल के मरीज हैं, सो निकाल ही दीजिए दिल का गुब्बार। इतना कहते हुए चाय का कप दौनोंके हाथों में थमाते हुए हम भी खाली पड़ी कुर्सी पर बैठ गए। मिश्रा जी ने बोलना शुरू किया, 19 नवंबर को विश्व पुरुष दिवस मनाया गया। विडंबना तो देखो कि विश्व शौच दिवस भी इसी दिन आता है। अरे शोचनीय दशा तो बेचारे पुरुषों की है। दुनिया भले ही पुरुष प्रधान समाज जैसे शब्दों की आड़ में कितना ही पुरुषों को कोस ले, लेकिन असल में मुसीबत तो मर्दों की महिलओं से कहीं ज्यादा ही हैं। अब घर से ही शुरू कर लो, महिलाएं जिस वक्त टीवी सीरियल्स में बहू की तीसरी शादी को देखने के लिए एक्साईटेड हो रही होती हैं, उस समय पुरुष अमेरिका के जंगी जहाजों पर नजर गड़ाए रहेंगे। न्यूयॉर्क एक्सचेंज के दाम बढ़ें या गिरें पुरुषों की सूरत देखकर इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। गजब तो तब हो जाए जब चुनाव हों, यह समझिए कि पुरुषों की तो आफत ही आ गई, दूर के रिश्तेदार भी इनसे फोन और फेसबुक पर पूछ लें और पता नहीं कब कौन सी पार्टी से संबधित सवाल इन्हें हल करना पड़ जाए। भला कभी किसी महिला से कोई यह सवाल होता है कि आप वोट किसे करेंगी या अमुक पार्टी की हार का सबसे प्रमुख कारण क्या था। इसके अलावा यदि दूसरे टाइमजोन में क्रिकेट या फीफा वर्ल्डकप हो, तो रातभर की नींद किसकी उड़ती हैं पुरुषों की ही न। इतना ही नहीं पुरुषों को कदम-कदम पर समझौता करना पड़ता है, मन मारना पड़ता है, त्याग करना पड़ता है। पुरुष साल भर में बामुश्किल अपने लिए शॉपिंग का मन बनाते हैं। थोड़ा वक्त मिल भी गया तो मार्केट जाने पर इन्हें कभी सही फिटिंग के वस्त्र नसीब नहीं होते। अािखरकार लॉन्ग कुर्ता, ओवरसाइज्ड चैक शर्ट और ब्लैक शूज इनकी फेवरेट फेहरिस्त में शामिल हो जाते हैं। इतिहास लिखे गए, लेकिन पुरुषों पर जुल्म की बात तो कभी किसी ने की ही नहीं, अब जरा देखिए यदि कोई पुरुष बीमार अवस्था में बस या ट्रेन में खड़ा होकर सफर कर रहा हो, उसके लिए कभी कोई सीट छोड़ता है क्या? और यदि वही पुरुष किसी अन्य दिन किसी महिला के लिए सीट न छोड़े, तो बस में सवार लोग उसे खा जाने वाली नजरों से घूरेंगे। आपने कभी किसी स्वस्थ महिला को बीमार पुरुष के लिए सीट छोड़ते हुए देखा है। महिला तो दूर कोई पुरूष भी उसके लिए सीट न छोड़े। प्रकृति ने भी पुरुषों के साथ कम अन्याय नहीं किया। पहला तो उन्हें बनाया ही कलर ब्लाइंड है, महिलाएं जहां रंगों के नाम पर बेबी पिंक, मजेंटा, सेलमन और यैलो सॉफ्ट में डूबी रहती हैं पुरुषों को काला, ब्लू और रेड हॉट के अलावा कोई रंग ही नजर नहीं आता। दूसरा गणित में ऊपर वाले ने ही कच्चा छोड़ दिया। किसी महिला से पूछो कि एक इंसान के लिए चावल कैसे बनाएं, तो वह गणित में जवाब देंगी- दो मुठ्ठी चावल डालो चावल से डेढ अंगुल ऊपर तक पानी और एक सीटी बजाकर बंद कर दो। अब इस हिसाब को सही मानकर कोई पुरुष चावल बनाए, तो न चावल सही पड़े न पानी और सीटी तो तब तक बजती रहेगी जब तक चावल राख न हो जाएं। पुरुष तो बेचारे किसी से दुश्मनी भी नहीं पालते। महिलाएं तो उस औरत की परछाईं से भी बचती हैं, जिसने उनके जैसे ही ईयररिंग्स पहन रखें हों, लेकिन यदि किसी पुरुष को अपने जैसी शर्ट पहने कोई व्यक्ति मिल भी जाए, तो उससे ऐसे मिलता हैं जैसे कुंभ में बिछड़े हुए भाई से मिल रहा हो। अक्सर कहा जाता है कि  महिला ही दूसरी महिला की शत्रु होती है, लेकिन यह कहना भी गलत नहीं है कि पुरुष भी खुद ही पुरुष का दुश्मन होता है। और इस दुश्मनी में वह सभी पुरुष शामिल हैं जो वूमेन्स डे पर तो चार फुट की बधाइंया देते हैं और फेसबुक पर पोस्ट अपलोड करते हैं लेकिन पुरुष दिवस पर चार लाईन का मैसेज तक नहीं करते। मिश्रा साहब के मुहं से पुरुषों का अथाह दुख सुनकर तो मेरी भी आंखे भर आर्इं, मिश्रा जी आपकी नाराजगी जायज है लेकिन जरा सोचिए, इतने दुख भरे जीवन में और जहां गणित कमजोर हो, ऐसे में यही हुआ होगा कि  जिस तरह पुरुषों को अपना जन्मदिवस और अपनी शादी की सालगिरह तक याद नहीं रहती इसी तरह पुरुष दिवस भी याद नहीं रहा होगा।

डिम्पल सिरोही 22/11/2014