Monday, January 15, 2018

Army Day :परमवीर चक्र अरुण खेतरपाल,जिसने अकेले उड़ा दिए थे पाकिस्तान के 7 टैंक

भारतीय सेना की जांबाजी के आपने ढेरों किस्से सुने होंगे होंगे। इन्हीं जांबाज सैनिकों में एक नाम है परमवीर चक्र विजेता अरुण खेत्रपाल। उन्होंने वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अकेले ही पाकिस्तानी सेना के 7 टैंक ध्वस्त कर दिए थे। उस समय अरुण खेत्रपाल की उम्र थी महज 21 वर्ष। अरुण खेतरपाल की जांबाजी के कुछ किस्से हम आपको बता रहे हैं जिन्हें जानकार आप भी भारतीय सेना के जवानों पर गर्व करेंगे।

17वीं पूना हॉर्स रेजिमेंट के थे अरुण खेत्रपाल


अरुण खेतरपाल भारत पाकिस्तान के बीच 1971 की लड़ाई के दौरान 17वीं पूना हॉर्स रेजिमेंट में थे। पाकिस्तानी सेना ने जम्मू-कश्मीर शकरगढ़ इलाके में घुसने की कोशिश की थी। 16 मद्रास के कमांडिंग ने खबर भिजवाई थी कि एक बड़े हमले के लिए पाकिस्तानी टैंक जमा हो रहे हैं, अगर भारतीय टैंक समय पर नहीं पहुंचे तो उन्हें रोकना मुश्किल हो जाएगा। पाक आर्मी की घुसपैठ की खबर के बाद भारतीय सेना ने इस इलाके में प्रवेश किया। उन्हें 1500 वर्ग गज़ के इलाके को पार करना था जिसमें बारूदी सुरंगें बिछी हुई थीं जैसे ही पाकिस्तानियों ने जवाबी हमला शुरू किया 17 हॉर्स केबी स्क्वाड्रन के कमांडर ने पीछे से और टैंक भेजे जाने की मांग की। कैप्टन मल्होत्रा, लेफ़्टिनेंट अहलावत और सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को केबी स्क्वाड्रन की मदद के लिए भेजा गया। 16 दिसंबर की सुबह पूना हॉर्स के टैंक एक लाइन बनाते हुए आगे बढ़ गए।

जब 11 टैंकों से अकेले करना था सामना


मोर्चे पर किस्तानी सेना के 14 टैंक थे और भारतीय जवानों के पास थे सिर्फ 3 टैंक। टैंकों की संख्या के लिहाज से देखें तो मुकाबला गैर बराबरी का था लेकिन अरुण खेतरपाल और उनके साथियों को खुद पर भरोसा था। उन्होंने खुद को लड़ाई में झोंक दिया। देखते ही देखते भारतीय जवानों ने पाकिस्तानी सेना के 3 टैंक मार गिराए। मुकाबला 11 और 3 टैंकों के बीच हो गया। इस बीच भारत के 3 टैंकों में से 1 ध्वस्त हो गया। दुर्भाग्यवश दूसरे में खराबी आ गई। दुश्मन के पास 11 टैंक थे और भारत के पास केवल एक टैंक बचा था। अरुण खेत्रपाल इसी टैंक पर सवार थे।

'मेरी गन अभी भी काम कर रही है...आई विल गेट देम.....


अरुण खेतरपाल ने ने पाकिस्तानी टैंकों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। दुश्मन के दो और टैंक नष्ट कर दिए। अचानक एक गोला अरुण खेत्रपाल के टैंक पर आ गिरा। टैंक में आग लग गई। रेडियो सैट पर उनका कमांडर उन्हें निर्देश दे रहा है कि अरुण टैंक को छोड़कर बाहर आ जाओ। लेकिन अरुण जवाब देते हैं 'मेरी गन अभी भी काम कर रही है...आई विल गेट देम.....' और इसके बाद वह रेडियो सैट बंद कर देते हैं। इसके बाद अरुण ने एक के बाद एक चार पाकिस्तानी टैंक ध्वस्त किए। उनकी जांबाजी देख पाकिस्तानी टैंक मैदान छोड़कर भागने लगे। 

आखिरी सांस तक लड़ते रहे खेतरपाल


इस लड़ाई में कुछ ही गज की दूरी पर थे कर्नल एसएस चीमा। बीबीसी के साथ बातचीत में उन्होंने बताया, 'जिस आख़िरी टैंक पर अरुण ने निशाना लगाया वो पाकिस्तान के स्क्वाड्रन कमांडर का टैंक था। खेतरपाल ने उस टैंक पर निशाना लगाया और पाकिस्तानी टैंक ने भी खेतरपाल के टैंक पर फायर किया। पाकिस्तानी कमांडर तो कूद कर बच गया लेकिन खेतरपाल के टैंक पर एक बम गिरा और उसमें आग लग गई। अरुण अपने टैंक से बाहर नहीं निकल पाए और वहीं उन्होंने दम तोड़ दिया। अरुण खेत्रपाल के साथ टैंक में बैठे रिसालदार मेजर नत्थू सिंह भी इस युद्ध में तैनात थे। वह बताते हैं कि अरुण कितने बहादुर थे वह हमले की परवाह न करते हुए आगे बढ़ रहे थे और सिर्फ उनका मकसद था की वह ज्यादा से जयादा पाकिस्तानी टैंकों को तबाह कर दें। पाकिस्तानी कमांडर ने निशाना लगाया जो खेतरपाल के टैंक पर गिरा ये धमाका इतना तेज था कि अरुण की आंतें तक बाहर आ गई थीं लेकिन वह ऐसा वीर था जिसने हार नहीं मानी।

परमवीर चक्र पाने वाले जवान सबसे कम उम्र के जवान


आखिरी सांस तक लड़ने वाले भारत के इस सपूत को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। उस समय उनकी उम्र महज 21 बरस थी। उस वक्त परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले सबसे कम उम्र के जवान थे। उनके घर पर खबर पहुंची, 'डीपली रिगरेट टु इनफ़ॉर्म यू यॉर सन आईसी 25067, सेकेंड लेफ़्टिनेंट खेत्रपाल रिपोर्टेडली मर्टियर इन एक्शन 16 दिसंबर.।

पाकिस्तानी सेना के अफसर ने अरुण के पिता को कहा, मैं आपके बेटे को सेल्यूट करता हूं


अरुण के शहीद होने के बरसों बाद उनके पिता ब्रिगेडियर एमएस खेत्रपाल पाकिस्तान स्थित जन्मभूमि सरगोधा गए। लाहौर में एक पाकिस्तानी ब्रिगेडियर नासेर ने अपने घर में ठहराया। और उन्हें कहा कि  16 दिसम्बर 1971 की सुबह आपका बेटा मेरे हाथों ही मारा गया था। मैं और वह आमने-सामने थे। वह अपने देश के लिए लड़ रहा था और मैं अपने देश के लिए। आपका बेटा बहुत बहादुर था। हम दोनों ने साथ-साथ एक दूसरे पर निशाना लगाया था लेकिन भाग्य से मैं बच गया और उसे दुनिया से जाना पड़ा। यह तो मुझे बाद में पता चला कि उस समय वह सिर्फ 21 साल का था। मैं आपके बेटे को सेल्यूट करता हूं। आपको भी सेल्यूट करता हूं। आपकी परवरिश ने ही उसे इतना बहादुर बनाया। 

कमांडर ने युद्ध में शामिल करने से कर दिया था इन्कार


अरुण मोर्चे पर पहुंचे तो उनके कमांडर हनूत सिंह ने उन्हें लड़ाई में शामिल करने से मना कर दिया क्योंकि वह यंग ऑफ़िसर्स कोर्स पूरा नहीं कर पाए थे। अरुण ने यह कह कर उन्हें मनाया कि अगर वह इस युद्ध में भाग नहीं ले पाए तो शायद ही उन्हें अपने जीवन के दौरान युद्ध में शामिल होने का मौका मिल पाएगा। कर्नल हनूत सिंह मान तो गए लेकिन अरुण को निर्देश दिया कि उनके साथ एक वरिष्ठ सूबेदार भेज रहा हूं और हर मामले में वह सूबेदार की सलाह लें। लेकिन एक्शन शुरू होने के एक घंटे के अंदर ही उस सूबेदार के सिर में गोला लगा और वह शहीद हो गए।

लाहौर में गोल्फ खेलूंगा और जीत की पार्टी में पहनूंगा ब्लू सूट


अरुण उस समय अहमदनगर में यंग ऑफिसर्स कोर्स कर रहे थे जब उन्हें रेजिमेंट में भेजने का फैसला लिया गया। रास्ते में दिल्ली में वह कुछ देर के लिए अपने घर पर रुके। मोर्चे के लिए रवाना होने से पहले अरुण ने एक नीला सूट और गोल्फ स्टिक भी अपने सामान में रखी। पिता ने पूछा तुम लड़ाई पर जा रहे हो वहां इनका क्या करोगे।  अरुण ने कहा, मैं लाहौर में गोल्फ़ खेलूंगा और, जीत के बाद डिनर पार्टी तो होगी ही..., तब ये नीला सूट पहनूंगा। इसलिए ये सब ले जा रहा हूं।'

बस नहीं आई तो स्कूल से तीन किलोमीटर  पैदल चलकर पहुं गए घर


अरुण खेत्रपाल कभी घबराए नहीं। छोटी से उम्र में भी नहीं। उस वक्त वह सिर्फ सात वर्ष के थे। स्कूल से उन्हें घर जाना था लेकिन गाड़ी आई नहीं। वह अपना और अपने छोटे भाई का बैग कंधे पर लादकर घर की तरफ चल दिए। घर तीन किलोमीटर दूर था। रास्ते में छोटा भाई कई बार रोया लेकिन उसे समझाबुझाकर वह घर तक पहुंच गए। 

गरीब बच्चे को दे दिया था अपना स्वेटर


अरुण सिर्फ साहसी नहीं दयालु भी थे। स्कली दिनों में सर्दियों में उन्होंने अपना स्वेटर एक गरीब बच्चे को दे दिया था क्योंकि उसके पास स्वेटर नहीं था।  (सभी फोटो : साभार गूगल )

Thursday, January 11, 2018

ये है असली 'TIGER' जिसने कर दी थी पाकिस्तान की नींद हराम


हाल ही में सलमान खान की फिल्म 'टाइगर जिन्दा है' रिलीज हुई है और बॉक्स ऑफिस पर खूब कमाई भी कर रही है। आपको बता दें कि ये फिल्म 'एक था टाइगर' का दूसरा भाग है। ये फिल्म एक जासूस 'टाइगर' के इर्द गिर्द घूमती है। लेकिन क्या आप जानते हैं असल जिन्दगी में 'टाइगर' कौन था ? शायद आप यह न जानते हों लेकिन जासूसी की रहस्यमय दुनिया का वह 'टाइगर' जिसने पाकिस्तानी सेना की नाक के नीचे काम करते हुए उसकी नींद उड़ा रखी थी। ऐसे ही रॉ एजेंट जासूस 'ब्लैक टाइगर' के बारे में आइये आपको बताते हैं।
रॉ एजेंट रवींद्र कौशिक जो एक थियेटर में कलाकार थे। वह न सिर्फ भारत के लिए जासूसी करने पाकिस्तान गए बल्कि उन्होंने पाकिस्तानी सेना में मेजर तक का पद हासिल कर दिया। कहा जाता है कि 1979 से 1983 तक पाकिस्तानी सेना में रहते हुए उन्होंने भारत को बहुत सी अहम जानकारियां उपलब्ध कराईं। तत्कालीन गृहमंत्री एसबी चव्हाण ने उनके कार्य से प्रभावित होकर उन्हें ‘ब्लैक टाइगर’ का खिताब दिया।
माना जाता है कि सलमान खान की फिल्म ‘एक था टाइगर’ रवींद्र कौशिक की ज़िंदगी से प्रेरित थी। मगर विडंबना है कि जो जासूस सरकारों के लिए बेहद अहम जानकारियों का ज़रिया होते हैं उन्हें ही वे अक्सर भूल जाते हैं।
लखनऊ में एक कार्यक्रम के दौरान रवींद्र कौशिक की मुलाकात भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के अधिकारियों से हुई। उन्होंने उनका काम देखते हुए रवींद्र को नौकरी का प्रस्ताव दिया। वे रवींद्र को पाकिस्तान में खुफिया एजेंट बना कर भेजना चाहते थे। सिर्फ 23 साल की उम्र में वह पाकिस्तान के मिशन पर भेजे गए।
दो साल की ट्रेनिंग के बाद  मिशन पर भेजे गए रवींद्र
वैसे तो पाकिस्तान में ज़िंदगी की जंग हारने वाले सरबजीत को लेकर भले ही ये विवाद रहा हो कि वह भारत के जासूस थे या नहीं!  मगर ये मामला जासूसी की रहस्यमयी दुनिया की तरफ ध्यान खींचता है। ये जासूस सरकारों के लिए बेहद अहम जानकारी का जरिया होते हैं। रवींद्र कौशिक जैसे जासूस अपनी जान पर खेल इस खतरनाक काम को अंजाम देते हैं। आपको बता दें कि पाकिस्तान जाने से पहले दिल्ली में करीब दो साल तक रविन्द्र को ट्रेनिंग दी गई। उन पर वहां किसी भी तरह का शक न हो, इसलिए इस्लामिक संस्कार के मुताबिक उनका खतना भी कराया गया। उर्दू, इस्लाम और पाकिस्तान के बारे में जानकारियां दी गईं। पंजाबी बोलने वाले श्रीगंगानगर के इस जासूस को पाकिस्तान में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई, क्योंकि वहां के ज्यादातर इलाकों में पंजाबी बोली जाती है।

भारत पहले से चीन और पाकिस्तान की आंखों की किरकिरी बना हुआ था। 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद पाकिस्तान नए हमले की तैयारी करने में लगा हुआ था। 1975 में रवींद्र को पाकिस्तान भेजा गया। वहां उन्होंने कराची यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया। नबी अहमद शाकिर नाम से पाकिस्तान की नागरिकता लेने वाले और कानून से ग्रेजुएशन करने के बाद वह पाकिस्तानी सेना में भर्ती हो गए। सेना में उन्हें प्रमोशन देते हुए मेजर रैंक दिया गया।
कई बार पाकिस्तान के मंसूबों पर फेरा पानी
उन्होंने स्थानीय लड़की अमानत से प्यार करने के बाद शादी कर ली, उन्हें एक बेटी भी हुई। उन्होंने अपनी जिंदगी के करीब 30 साल परिवार से दूर ऐसे मुल्क में गुजारे, जहां के हालत एकदम उलट थे। कई बार पाकिस्तान राजस्थान की सीमा से हमला करने का मंसूबा बनाता था, लेकिन अहम जानकारी भारत को पहले ही मिल जाने से यह पाक के लिए मुमकिन नहीं हो पाता था।
1983 में रवींद्र कौशिक से मिलने रॉ ने एक और एजेंट पाकिस्तान भेजा। लेकिन वह पाकिस्तान खुफिया एजेंसी के हत्थे चढ़ गया। लंबी यातना और पूछताछ के बाद उसने रवींद्र के बारे में सब कुछ बता दिया।
रवींद्र को गिरफ्तार कर सियालकोट की जेल में डाल दिया गया। पूछताछ में लालच और यातना देने के बाद भी उसने भारत की कोई भी जानकारी देने से मना कर दिया। 1985 में उसे मौत की सजा सुनाई गई, जिसे बाद में उम्रकैद में बदला गया। मियांवाली जेल में 16 साल कैद काटने के बाद 2001 में उनकी मौत हो गई।
रविन्द्र के पिता इंडियन एयरफोर्स में अफसर थे। रिटायर होने के बाद वह टेक्सटाइल मिल में काम करने लगे। रवींद्र ने जेल से कई खत अपने परिवार को लिखे। जिनमें उनके ऊपर होने वाले अत्याचारों की एक लम्बी दास्तां थी। अपने पिता को लिखे एक खत में उन्होंने अपने पिता से पूछा था कि 'क्या भारत जैसे बड़े मुल्क में कुर्बानी देने वालों को यही सिला मिलता है?'

जिससे खौफ खाते थे मुग़ल बादशाह, पेशवा बाजीराव से जुड़ी 9 ख़ास बातें

मराठा साम्राज्य के शासक पेशवा बाजीराव प्रथम को कौन नहीं जानता ? उन्होंने अपने साहस और सैन्य व्यूह रचना से मराठा साम्राज्य का विस्तार किया। उनकी वीरता के किस्से आज भी सुनाए जाते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि उन्होंने जितनी भी लड़ाइयां लड़ीं, उसमें से कोई नहीं हारी। ऐसे वीर योद्धा से जुड़ी कुछ खास बातें आज हम आपको बता रहे हैं।

ब्राह्मण परिवार में हुआ था जन्म


पेशवा बाजीराव का जन्म 18 अगस्त सन 1700 को एक भट्ट परिवार में पिता बालाजी विश्वनाथ और माता राधा बाई के घर में हुआ था। पेशवा बाजीराव के पिताजी छत्रपति शाहू के प्रथम पेशवा थे।

ये था पेशवा का पूरा नाम


बाजीराव पेशवा (bajirao peshwa) का पूरा नाम श्रीमंत बाजीराव बल्लाळ (बाळाजी) भट्ट था। 1720 के आस-पास पिता की मृत्यु के बाद उन्हें पेशवा के पद पर मनोनीत किया गया। उस समय उनकी उम्र मात्र 20  वर्ष थी।  उनकी उम्र बहुत कम थी  इसलिए उनकी नियुक्ति का काफी विरोध हुआ। हालांकि बाजीराव पेशवा का पद पाने में सफल रहे।

किसी युद्ध में नहीं हुए पराजित


पेशवा बाजीराव जिन्हें बाजीराव प्रथम (Bajirao I) भी कहा जाता है मराठा साम्राज्य के एक महान पेशवा थे। पेशवा का अर्थ होता है प्रधानमंत्री। वे मराठा छत्रपति राजा शाहू के चौथे प्रधानमंत्री थे। बाजीराव पेशवा ने 41 युद्ध लड़े थे जिनमे से एक में भी वह पराजित नहीं हुए थे।अपने अद्भुत रणकौशल, अदम्य साहस और अपूर्व संलग्नता से तथा प्रतिभासंपन्न छोटे भाई चिमाजी साहिब अप्पा के सहयोग द्वारा शीघ्र ही उसने मराठा साम्राज्य को भारत में सर्वशक्तिमान बना दिया। पेशवा बनते ही बाजीराव ने अपने इरादे जाहिर कर दिए। वह मराठा ध्वज को दिल्ली में लहराते हुए देखना चाहते थे साथ ही वह मुग़ल साम्राज्य को सत्ता से बाहर करना चाहते थे। 

घुड़सवार सैनिक के रूप में लड़ने में थे माहिर


उत्तर में मराठा साम्राज्य को बढाने में बाजीराव का सबसे मुख्य योगदान रहा। इतिहास की मानें तो बाजीराव घुड़सवारी करते हुए लड़ने में सबसे माहिर थे। बहुत से लोग कहते हैं कि उनसे अच्छा घुड़सवार सैनिक भारत में आज तक नहीं  हुआ। कहा जाता है कि घोड़े पर बैठकर श्रीमंतबाजीराव के भाले की फेंक इतनी जबरदस्त होती थी कि सामने वाला घुड़सवार अपने घोड़े सहित घायल हो जाता था।

मुग़ल बादशाह भी पेशवा से खाते थे खौफ


मुगल बादशाह मुहम्मद शाह उनसे इतना खौफ खाता था कि वह उनसे प्रत्यक्ष भेंट से भी इनकार कर देता था। बाजीराव का सबसे मुख्य अभियान भोपाल का युद्ध था जिसमें  उन्होंने दक्कन के नवाब उल मुल्क को पुन: हराया और उसे 50 लाख रूपये युद्ध के हर्जाने के रूप में चुकाने को कहा। बाजीराव का एक और मुख्य अभियान था पुर्तगालियों को पराजित करना। जिसके बाद कोंकण क्षेत्र से पुर्तगालियो का अधिकार समाप्त हो गया और उन्होंने 7000 रुपये वार्षिक हर्जाने के रुप में मराठाओं को देना स्वीकार किया।

निज़ामुलमुल्क पर विजय


1737 ई. में बाजीराव प्रथम  सेना लेकर दिल्ली तक गया, परन्तु बादशाह की भावनाओं पर चोट पहुंचाने से बचने के लिए उसने अन्दर प्रवेश नहीं किया। इस मराठा संकट से मुक्त होने के लिए बादशाह ने बाजीराव प्रथम के घोर शत्रु निज़ामुलमुल्क को सहायता के लिए दिल्ली बुला भेजा। निजाम ने इसे बाजीराव की बढ़ती शक्ति को रोकने का अनुकूल अवसर समझा। भोपाल के निकट दोनों प्रतिद्वन्द्वियों की मुठभेड़ हुई। 27 अगस्त सन 1727 में बाजीराव ने निज़ाम के खिलाफ मोर्चा शुरू किया। निज़ामुलमुल्क पराजित हुआ तथा उसे विवश होकर सन्धि करनी पड़ी। पेशवा बाजीराव ने निज़ाम के कई राज्यों पर कब्ज़ा कर लिया जैसे बुरहानपुर, और खानदेश।

गुरिल्ला युद्ध प्रणाली में निपुण 


बाजीराव प्रथम ने 29 मार्च, 1737 को दिल्ली पर धावा बोला। मात्र तीन दिन में मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह दिल्ली छोड़ने के लिए तैयार हो गया था। उत्तर भारत में मराठा शक्ति की सर्वोच्चता सिद्ध करने के प्रयास में बाजीराव प्रथम सफल रहे। उन्होंने  पुर्तग़ालियों से बसई और सालसिट प्रदेश भी छीन लिए। शिवाजी के बाद बाजीराव प्रथम ही दूसरे ऐसे मराठा सेनापति थे, जिन्होंने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया। वह 'लड़ाकू पेशवा' के नाम से भी जाने जाते हैं।
बुंदेलखंड का अभियान

बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल ने मुगलों के खिलाफ विद्रोह छेड़ा। जिसके कारण दिसम्बर 1728 में मुग़लों ने मुहम्मद खान बंगश के नेतृत्व में बुंदेलखंड पर आक्रमण कर दिया और महाराजा के परिवार के लोगों को बंधक बना दिया। महाराजा छत्रसाल के बाजीराव से मदद मांगने पर मार्च, सन 1729 में पेशवा बाजीराव ने अपनी ताकत से महाराजा छत्रसाल को उनका सम्मान वापस दिलाया।

इसलिए प्रसिद्ध है बाजीराव का दिल्ली पर हमला 


28 मार्च 1737 को मराठों ने दिल्ली की लड़ाई में मुग़लों को बुरी तरह परस्त किया। इतिहास के कई जानकारों का कहना है कि दिल्ली तक की दस दिन की दूरी बाजीराव ने केवल पांच सौ घोड़ों के साथ 48 घंटे में बिना रुके पूरी की और वह भी बिना थके। देश के इतिहास में ये सिर्फ दो आक्रमण ही सबसे तेज माने गए हैं, एक अकबर का फतेहपुर से गुजरात के विद्रोह को दबाने के लिए नौ दिन के अंदर वापस गुजरात जाकर हमला करना और दूसरा बाजीराव का दिल्ली पर हमला। 27 अप्रैल 1740 को  बीमारी के कारण उनकी असामयिक मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु अपने उन सिपाहियों के बीच हुई जिनके साथ वह आजीवन रहे।

Wednesday, January 10, 2018

'ऑपरेशन विजय': सेना ने महज 36 घंटे में पुर्तगाल शासन से आजाद करा लिया था गोवा


19 दिसंबर देश के इतिहास में वह तारीख है, जिस दिन भारतीय सेना ने गोवा, दमन और दीव को साढ़े चार सौ साल के पुर्तगाली साम्राज्य से आजाद कराया था। 18 दिसंबर, 1961 को भारतीय सेना ने गोवा में ऑपरेशन विजय की शुरुआत की और 19 दिसंबर को पुर्तगाली सेना ने आत्मसर्पण कर दिया।

व्यापारियों की पसंदीदा स्थान था गोवा


कहा जाता है कि आकार में छोटे होने के बावजूद गोवा शुरू से ही बड़ा ट्रेड सेंटर रहा है। अपनी लोकेशन की वजह से यह विदेशियों को शुरू से ही आकर्षित करता रहा। इतना ही नहीं मुगल शासन के समय भी अनेक शासक इसकी तरफ आकर्षित होते रहे ।

इस साल बज उठा गोवा की आजादी का बिगुल


कहा जाता है कि गोवा की आजादी के लिए लिए 1950 के आसपास प्रदर्शन ने जोर पकड़ा। 1954 में भारत समर्थक गोवा के स्वतंत्रता सेनानियों ने दादर और नागर हवेली को मुक्त करा लिया। यहां से आंदोलन और तेज हुआ। 1955 में करीब 3000 से अधिक सत्याग्रहियों ने गोवा की आजादी के लिए आंदोलन शुरू कर दिया।

आन्दोलन के खिलाफ हिंसक हो गई थी पुर्तगाली सेना


इसके बाद पुर्तगाली सेना ने आंदोलन को कुचलने के लिए हिंसक रूप अख्तियार कर लिया। इस हिंसा में बड़े पैमाने पर लोग मारे गए। लेकिन अब चिंगारी का आग का रूप ले चुकी थी। तनाव बढ़ा और भारत ने पुर्तगाल से सभी राजनयिक संबंध खत्म कर लिए। साथ ही भारत ने अंतररराष्ट्रीय मंच पर भी इस मामले को उठाया। हालांकि, भारत की इस कोशिश का कोई फायदा नहीं हुआ और बाद में भारत को सैन्य कार्रवाई करनी पड़ी।

पुर्तगालियों पर टूट पड़ी थी तीनों सेना


भारतीय सेना के तीनों अंगों ने आखिरकार 18 दिसंबर 1961 को जल थल और नभ से पुर्तगालियों पर जबर्दस्त हमला बोल दिया लेकिन इस बात का पूरा ध्यान रखा कि इसमें जनहानि कम से कम हो

सिर्फ 36 घंटे में आजाद करा लिया था गोवा


दरअसल, भारत सरकार की बार-बार आजादी की मांग के बावजूद पुर्तगाली शासन इन इलाकों को आजाद करने के लिए तैयार नहीं था। ऐसे में 18 दिसंबर 1961 को 'ऑपरेशन विजय' की कार्रवाई शुरू हुई। भारतीय सैनिकों ने गोवा में प्रवेश किया और युद्ध शुरू हुआ। बताया जाता है अगले ही दिन पुर्तगाली सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। कहा जाता है कि करीब 36 घंटे चले इस युद्ध में 19 दिसंबर को भारत ने गोवा को आजाद करा लिया।

लिस्बन में नहीं मनाया गया था क्रिसमस  


गोवा मुक्ति पर लिखी गई केपी सिंह की पुस्तक के मुताबिक  गोवा के भारत के हाथों में चले जाने की खबर से लिस्बन शहर में शोक की लहर दौड़ गई थी और वहां पर क्रिसमस का त्यौहार बड़े बुझे मन से मनाया गया।

30 मई 1987 को गोवा बना राज्य


30 मई 1987 को गोवा  को राज्य का दर्जा दिया गया। इस तरह आजादी के करीब 14 साल बाद आजाद होकर भारत में शामिल हुआ गोवा भारत का एक नया राज्य बना। वहीं गोवा के साथ आजाद हुए दमन और दीव केंद्रशासित प्रदेश के रूप में बने हुए हैं।

कोई इन्हें कहता है 'मिसाइल वुमेन' तो कोई 'अग्निपुत्री', मिलिए DRDO की टेसी थॉमस से


हाल ही में महिंद्रा ग्रुप के चेयरमैन आनंद महिन्द्रा ने एक ट्वीट के जरिये कहा था कि 'टेसी बॉलीवुड की किसी भी ऐक्ट्रेस से ज्यादा प्रसिद्ध होने की योग्यता रखती हैं। टेसी के पोस्टर हर भारतीय स्कूल में होने चाहिए, जो रूढ़ियों को खत्म करेगा और लड़कियों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देगा'। लेकिन ऐसा क्या है जो टेसी को इतना ख़ास बनाता है। तो आपको बता दें कि टेसी थॉमस भारत की पहली मिसाइल वुमेन हैं। यकीनन जब आप टेसी के बारे में जानेंगे तो आपको भी उन पर गर्व होगा। आज हम आपको रूबरू करने जा रहे हैं टेसी की अद्भुत कामयाबी से :

केरल की हैं टेसी थॉमस


केरल के अलेप्पी में एक कैथोलिक परिवार में अप्रैल, 1964 को टेसी थॉमस का जन्म हुआ यह जगह मिसाइल लॉन्च स्टेशन से कुछ ही दूरी पर है। कलीकट यूनिवर्सिटी से इलेक्ट्रिकल में बीटेक करने के बाद उन्होंने पूना यूनिवर्सिटी से गाइडेड मिसाइल का कोर्स किया। ऑपरेशंस मैनेजमेंट में एमबीए और मिसाइल गाइडेंस में पीएचडी पूर्ण की।

इस वर्ष बनी DRDO का हिस्सा


वह आईएएस की परीक्षा भी दे चुकी हैं। लेकिन इत्तेफाक से डीआरडीओ और आईएएस का इंटरव्यू एक ही दिन था। उन्होंने डीआरडीओ को चुना वर्ष 1988 में वह DRDO में शामिल हुईं।

'अग्नि' के निर्माण में निभाई महत्वपूर्ण भूमिका


'मिसाइल वुमन' के नाम से मशहूर वैज्ञानिक टेसी थॉमस किसी मिसाइल प्रॉजेक्ट का नेतृत्व करने वाली भारत की पहली महिला हैं। उन्होंने लंबी दूरी की परमाणु सक्षम बैलिस्टिक मिसाइल 'अग्नि' के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और वह दुनिया में रणनीतिक परमाणु बैलिस्टिक मिसाइलों पर काम कर रही महिलाओं में से एक हैं।

वर्तमान में ASL(DRDO) की डायरेक्टर हैं टेसी


टेसी थॉमस इस समय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) में एडवांस्ड सिस्टम्स लैब (हैदराबाद) की डायरेक्टर हैं। उन्होंने हैदराबाद में हाल ही में आयोजित ग्लोबल एंटरप्रिन्योरशिप सम्मिट में बतौर स्पीकर भी हिस्सा लिया ग्वालियर की आईटीएम यूनिवर्सिटी उन्हें मानद उपाधि दे रही हैं।

मिला था 'मिसाइल मैन' का सान्निध्य


उन्होंने अपना पहला मिसाइल प्रोजेक्ट डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की अध्यक्षता में पूरा किया टेसी की  उपलब्धियों में अग्नि-2, अग्नि-3 और अग्नि-4 प्रक्षेपास्त्र की मुख्य टीम का हिस्सा बनना और सफल प्रक्षेपण शामिल हैं। उन्होंने पृथ्वी, आकाश, अग्नि, नाग, धनुष, त्रिशूल और ब्रह्मोस जैसी मिसाइलों के अनुसन्धान और विकास पर काम किया 2009 में उन्हें अग्नि-4 की परियोजना निदेशक बनाया गया।

कई महीनों तक नहीं गई थी घर टेसी


टेसी के मुताबिक 'अग्नि मिसाइल' के परीक्षण के पहले टेसी और उनके कई साथी कई महीनों तक घर नहीं गए। जब मिसाइल का कार्य पूर्ण हुआ और मिसाइल सभी मानकों पर खरी उतरी तो सभी घर गए। टेसी मानती है कि जैसे किसान देश के लिए मेहनत करते हैं उसी तरह साइंटिस्ट भी काम करते हैं। उनका योगदान भी किसानों जितना है। वह बताती हैं कि उनके लिए वर्ष 2006 का मुश्किल समय था। जब एक मिसाइल लांच के बाद कंट्रोल से बाहर हो गया था। इसके बाद दस महीनों तक कड़ी मेहनत के बाद इसका सफल परीक्षण किया गया।

अग्नि के अवतार में दिखा टेसी का कौशल  


टेसी जब DRDO में शामिल हुई थी तब यहां पुरुषों का बोल-बाला था। यहां टेसी ने गाइडेड मिसाइल पर काम करना शुरू किया। इस दौरान वह अपना काम चुप-चाप करती थीं। उनकी चर्चा वर्ष 2012 में हुई जब DRDO में अग्नि मिसाइल का सफल परीक्षण किया। उस वक्त उनके कौशल से पूरा देश हैरान रह गया था।

एडवांस वर्जन पर कर रही हैं काम


अग्नि के सफल परीक्षण के बाद टेसी को अग्निपुत्री टेसी थॉमस का नाम दिया गया। उन्होंने अग्नि मिसाइल के एडवांस वर्जन पर काम करना शुरू किया और अग्नि-5 का सफल परीक्षण किया। इस मिसाइल के बाद भारत उन देशों में शामिल हो गया है जिनके पास इंटर कोंटीनेंटल बैलेस्टिक मिसाइलसिस्टम (ICBM) है। इस मिसाइल की मारक क्षमता 5000 किमी तक है।

वुमेन कॉम्बेट भूमिका का करती हैं समर्थन


48 वर्षीय भारतीय महिला वैज्ञानिक टेसी थॉमस को 2012 में टेसी थॉमस का लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए चयन किया गया था। लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय पुरस्कार नई दिल्ली के लाल बहादुर शास्त्री प्रबंधन संस्थान द्वारा लोक प्रशासन, शिक्षा और प्रबंधन क्षेत्र में किसी व्यक्ति द्वारा किए गए योगदान के लिए प्रदान किया जाता है। यह पुरस्कार उन्हें राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया गया था। थॉमस भारतीय सेना में महिलाओं को युद्ध की भूमिका दिए जाने का भी समर्थन करती हैं वह कहती हैं कि यदि वह इतनी तत्परता से सेना में भूमिका निभा रही हैं तो वह युद्ध क्षेत्र में भी भूमिका निभा सकती हैं।

Tuesday, January 9, 2018

सैनिकों ने ही नहीं, पशु-पक्षियों ने भी लड़ी तमाम लड़ाइयां...

जब किसी युद्ध में जानवरों के योगदान की बात आती है, तो जेहन में कुत्तों और घोड़ों का ही ख्याल आता है, लेकिन क्या आपने कभी 'जैकी बबून' या 'लीजी हाथी' के बारे में सुना है? शायद नहीं, लेकिन ऐसे बहुत से जानवर हैं, जिन्होंने सैनिकों की तरह ही युद्धभूमि में अपना योगदान दिया है। कोई भी जानवर खुद युद्ध में जाने के विकल्प को नहीं चुनता, लेकिन जब उनका इस्तेमाल किया जाता है तो वे निस्वार्थ भावना से अपना कर्तव्य निभाते हैं। उनका यही नेचर एक जानवर को भी 'सच्चा हीरो' बना देता है। आइये जानते हैं ऐसे ही कुछ जानवरों के बारे में जिन्होंने कई लड़ाइयों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

मोर्चे पर भी अपना कौशल दिखाते हैं कुत्ते

स्टेब्बी ने गैस अटैक सबसे पहले ही अपने सैनिकों को सचेत कर दिया है
स्टेब्बी ने गैस अटैक सबसे पहले ही अपने सैनिकों को सचेत कर दिया है
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तकरीबन बीस हजार कुत्तों ने युद्ध में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई थी, जिनमे 'सार्जेंट' और 'स्टेब्बी' डॉग्स प्रुमख हैं। स्टेब्बी ने सबसे पहले अपने सैनिकों को गैस अटैक की चेतावनी दी थी। वहीँ रोमन सेना के पास कुत्तों की पूरी एक कंपनी थी, जिन्हें खास कॉलर और पैरों में एंकल पहनाए जाते थे। कुत्तों को बारुदी सुरंग सूंघने और बम धमाकों में घायल लोगों को ढूंढने के लिए इस्तेमाल किया जाता था, इन्हें एंटी टैंक डॉग्स कहा जाता था।

साउथ अफ्रीकन 'बबून सोल्जर' 

'जैकी बबून सोल्जर'
अपने हैंडलर के घायल हो जाने पर 'जैकी बबून सोल्जर' ने उसकी तब तक मदद की जब तक स्ट्रेचर नहीं पहुँच गया
बबून सोल्जर 'जैकी बबून' प्रथम विश्व युद्ध में 3 साउथ अफ्रीकन (3-SA) इन्फैंटरी का शुभंकर था। बाद में उसे ट्रांसवाल रेजिमेंट का शुभंकर बनाया गया और उसे बटन वाली यूनिफार्म व कैप भी दी गई थी। जैकी ने युद्धक्षेत्र में सैनिकों को राशन भेजा, उसे बाकायदा अपने अफसरों को सैल्यूट करना भी आता था। युद्धक्षेत्र में ही अपने बचाव के लिए पत्थरों की दीवार बनाने की कोशिश करते हुए वह घायल हो गया। जैकी की टांग में गोली लगी थी, उसका ऑपरेशन कर उसकी सेवा रोक दी गई।

दुश्मन की खूब खबर देते हैं कबूतर

संदेश वाहक कबूतर
फ्रेंच ट्रूप्स कबूतरों को खास ट्रेवलिंग बास्केट और गैस प्रूफ बॉक्स में रखते थे
संदेश वाहक के रूप में कबूतर का तकरीबन 5,000 साल से भी अधिक समय से इस्तेमाल किया गया है। उनके महत्वपूर्ण संदेशों ने प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में हजारों लोगों के जीवन को बचाया। उनके अच्छे दिशा ज्ञान के कारण दूसरे विश्व युद्ध में सिर्फ ब्रिटेन ने दूर दराज में संदेश भेजने के लिए दो लाख कबूतर इस्तेमाल किए।'चेरअमी' नाम के कबूतर को अपने साहस संदेश वितरण के लिए 'डिकिन' सम्मान दिया गया था, जिसने घायल होने के बावजूद कई सैनिकों की जान बचाई थी।

हर युद्ध का प्रमुख हिस्सा रहे घोड़े  

युद्ध स्थल में तैनात घोड़े के साथ सैनिक
युद्ध स्थल में तैनात घोड़े के साथ सैनिक
इन्सान ने 4,000 ईसा पूर्व के मध्य एशिया में घोड़ों का पालन शुरू किया था और उनका इस्तेमाल इतिहास के ज्यादातर युद्धों में किया गया। घोड़ों ने अनगिनत लड़ाइयों में भाग लिया है। प्रथम विश्व युद्ध में तकरीबन आठ लाख से अधिक घोड़ों की मौत हो गई थी। '61 कैवलरी रेजिमेंट' भारतीय सेना की एक मात्र 'अश्वारोही हॉर्स कैवलरी रेजिमेंट' है।

ऊंट के बेहतर साथ को देखते हुए बनाई गई 'कैमल ब्रिगेड'

घायलों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाते थे ऊंट
घायलों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाते थे ऊंट
घायलों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाते थे ऊंट
साल 1915  में कैमल ब्रिगेड का गठन हुआ लेकिन रोमन साम्राज्य के बाद से युद्ध में ऊंट का इस्तेमाल किया गया है। यहां 1917 के दौरान बड़ी संख्या में ऊंटों का इस्तेमाल घायल सैनिकों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने में किया जाता था। दोनों विश्वयुद्ध में जौहर दिखाने वाले ये 'सिपाही' अपने आप में अद्भुत हैं और आज भी बीकानेर (राजस्थान) की ऊंट रेजिमेंट बीएसएफ का अभिन्न हिस्सा है।

हाथी ने भी खूब दिखाया दम-खम

रोमन सेना ने हाथियों को सामन ढोने मलबा हटाने के लिए युद्धक्षेत्र में रखा था
रोमन सेना ने हाथियों को सामन ढोने मलबा हटाने के लिए युद्धक्षेत्र में रखा था
हैनिबल युद्ध (रोम)में हाथियों को पहली बार युद्ध में शामिल किया गया था। प्रथम विश्व युद्ध में 'लीजी' नामक हाथी को टॉमी वार्ड के कारखाने में मदद करने के लिए शामिल किया गया। यहां कई हाथी युद्ध के मैदानों में भारी हथियारों और युद्ध सामग्री ढोने में सहयोग करते थे।

जहाज के शुभंकर बनाए गए कछुए

जहाज के शुभंकर के रूप में रखे जाते थे कछुए
जहाज के शुभंकर के रूप में रखे जाते थे कछुए
'अली पाशा' और 'ब्लैक' ऐसे ही कछुए हैं जिन्हें अपने महत्वपूर्ण योगदान के लिए हमेशा याद किया जाता है। पहले कछुओं का इस्तेमाल शुभंकर के रूप में किया गया था। टिमोथी, क्रीमियन युद्ध में जहाज के शुभंकर के रूप रखा जाता था और 'जोनाथन' नाम का कछुआ बोअर युद्ध में सैनिकों के साथ दिखाई दिया था।

पानी के भीतर खतरे से सावधान करती थीं डॉल्फ़िन 

पानी के नीचे खतरों को भांप लेती थी डॉलफिन
पानी के नीचे खतरों को भांप लेती थी डॉलफिन
सैन्य प्रशिक्षित डॉल्फ़िन पानी के नीचे की माइंस को खोजने और नौसैनिक तैराकों को बचाने का काम करती थी। पानी के नीचे बिछाई गई बारुदी सुरंगों का पता लगाने के लिए इनका इस्तेमाल किया जाता था। उनका प्रशिक्षण सैन्य कुत्तों के प्रशिक्षण के समान ही किया जाता था लेकिन उन्हें ये ट्रेनिंग पानी के भीतर दी जाती थी।