Wednesday, March 4, 2020

बहुत खलता है ......., एक खूबसूरत ​रिवायत का यूं मर जाना...!


एक समय था जब होली के त्योहार में प्राकृतिक रंगों के साथ एकता, भाईचारे और सौहार्द के रंग भी मिले होते थे। आज न ही वो आपसी सौहार्द है और न ही त्योहारों में वो खूबसूरती। न जाने कितनें ही त्योहारों की पुरानी परंपराएं विलुप्त होती जा रहीं हैं, मैनें भी अपने सामने होली की एक खूबसूरत परंपरा को इसी तरह मरते देखा है.......।
photo: google

ये 90 के दशक की बात है। मैं और मेरी बहन दोनों के लिए हर बार होली आने से चार दिन पहले ही मां नए कपड़े खरीदकर ले आती थीं। हम जब तक उन्हें छूकर नहीं देख लेते तब तक हमें यकीन नहीं होता ये सोचकर कि कहीं मां होली वाले दिन हमें पुराने कपड़े न पहना दें।
नई ड्रेस के बाद मां का दूसरा काम था लकड़ी की उस कश्मीरी टोकरी को निकालना, जिसे वह अपनी अलमारी में सहेज कर रखती थीं। उधर, इस टोकरी को फूलों से भरने की हमारी जद्दोजेहद एक दिन पहले ही शुरू हो जाती थी। इस दिन की खुशी अलग ही होती थी, क्योंकि इस दिन पापा के साथ अपने खेतों पर जाने का मौका जो मिलता था।
जितनी देर पापा खेत पर होते, तब तक दूर तलक फैली सरसों के न जानें कितने खूबसूरत पीले फूलों को बटोर लिया जाता। लेकिन सिर्फ पीले से काम कहां चलता, बालमन को तो नीला, गुलाबी, हरा सभी रंग के फूलों की ललक रहती। इसके लिए सड़कों पर खड़े पलाश, कनेर, अनार और कचनार जैसे पेड़ काफी थे। चिल्ला- चिल्लाकर पापा से ट्रैक्टर रोकने को कहते और ..धम्म से कूदकर सुर्ख फूलों को चुन लाते। हां, इस पूरी प्रक्रिया में पापा को अन्य दिनों की अपेक्षा लेट हो जाता था। जाहिर है बच्चों की जिद के आगे आखिर हर पिता को झुकना ही पड़ता है।
घर पहुंचने तक के रास्ते में यदि किसी के घर के बाहर गुलाब खिले दिख गए तो कहना ही क्या? फिर से ट्रैक्टर रुकवाया और झट से दो-चार सुर्ख और गुलाबी गुलाब झपट लिए। कई बार इस मुश्किल काम में कांटों ने नन्हीं उंगलियों को चीरा भी। सब चलता था, क्योंकि एक हनक थी कि होली की बच्चा पार्टी में हमारे पास सबसे ज्यादा और खबूसूरत फ्लावर्स होने चाहिए। अब रात भर फूलों को सही सलामत रखने की जिम्मेदारी मां की होती।
सुबह होते ही फूलों को बिचूरकर टोकरियों में रखने की तैयारी शुरू हो जाती। दोपहर को तीन बजते ही मां हम दोनों को नई ड्रेस पहनाकर तैयार कर देती और फूलों की टोकरी हाथों में थमा देती। साथ ही ये भी समझा देती कि शैतानी में चोट न मार लेना! पूरे गांव में घूमकर पांव न दुखा लेना! घर वापस आने में ज्यादा देर न कर देना, आदि।
सारी तैयारियों के बाद अब किससे सब्र होता, मां इजाज़त दे और हम अपनी फ्रेंड्स को लेने उनके घर पहुंच जाएं। लेकिन मां के मुताबिक बाकी लड़कियों को तुम्हारे घर आने दो, तब उनके साथ निकल जाना।
चूड़ियां खनकाती, हाथ में फूलों से भरी टोकरियां लिए चहचहाती छोटी लड़कियों का शोर जैसे ही घर तक पहुंचता, सभी घरवाले निकलकर आंगन में आ जाते। सारी बच्चियां घर के सदस्यों पर अपनी-अपनी टोकरियों से फूल बिखेरतीं और हैप्पी होली बोलकर विश करतीं।
यहां से हम भी टोली में जुड़ जाते और गांव में घूमते हुए हर घर में जाकर सबको नमस्ते करते..., फूल बिखेरते..., हैप्पी होली बोलते और निकल जाते...। इस दौरान घर के लोगों की उन बच्चों से भी पहचान हो जाती जिन्हें वे अब तक नहीं पहचानते थे। कोई प्यार से गोद में उठा लेता तो कोई तरह-तरह की मिठाइयां परोस देता। कोई सौ सवाल पूछता। कोई मस्ती में डराने की काशिश करता, तो कोई पढ़ाई का स्टेटस चैक करने लग जाता।....और इस तरह शाम हो जाती और हम घर लौट आते।
ये एक खूबसूरत तरीका था समाज को, लोगों को जानने का, रिश्तों की पहचान करने का, संस्कारों को जीने का। ये एक खूबसूरत याद थी जो आज भी हमारे दिलों में जिंदा है। ये एक खूबसूरत परंपरा थी जिसका अनायास ही मिट जाना बड़ा खलता है। अब गांव में होली पर किसी का घर लाड़लियों की रंग-बिरंगी टोकरियों से गिरे उन फूलों से नहीं महकता, अब लड़कियों की टोली फूलों से त्योहारों की मुबारकबाद देने नहीं जाती।
आज समय बदला चुका है, हम कहते हैं कि हमने विकास किया है लेकिन उस विकास की प्रक्रिया में समाज के चेहरे को नकारात्मकता के साथ बदल दिया है। मुझे नहीं लगता कि आज कोई भी मां-बाप अपनी पांच या दस साल की बेटी को अपने पड़ोसी के यहां बेखौफ भेज दें, या इस तरह बच्चियां आजादी से किसी के घर जाकर एक-दूसरे को विश कर सकें। हमने अपने बच्चों के लिए कैसा माहौल बना दिया है ?
सवालों के जवाब हमारे ही पास हैं बदलना भी हमें ही है। ये बेहद खूबसूरत परंपरा जिस तरह विलुप्त हो गई इसी तरह न जानें और भी कितने ही ट्रेडिशन खत्म होने की कगार पर हैं या हो चुके हैं, जिन्हें सहेजकर रखने में हम सभी को सहयोग करने की जरूरत है। आज भी जब होली का जिक्र होता है तो वह अनमोल दिन कभी नहीं भूलता। बस कुछ बाकी है तो खूबसूरत यादें, जो आपको ताजगी देती हैं, ऊर्जा देती हैं।

2 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 05.03.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3631 में दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|

    धन्यवाद

    दिलबागसिंह विर्क

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  2. आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, लंबे समय से नहीं लिख पा रही हूं, उम्मीद है अब से आपको कुछ बेहतर पोस्ट पढ़ने को मिलेंगी।
    -डिम्पल सिरोही

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