Saturday, September 20, 2014

कल रात
गोलमटोल चांद को देखकर
याद आया चांद की ही तरह,
एक शून्य ही तो हैं हम सभी
कुछ छोटे और कुछ बड़े-बडे,
अनगिनत और अलग रंगों के
कुछ भूरे कुछ मटमैले से।
विचरण करते हैं इस गोल दुनिया में
जहां से शुरू होते हैं वहीं हो जाते हैं खत्म
जिस तरह चांद अनंत अंतरिक्ष में
जहां से चलता है वहीं वापस आकर,
थकान से मूंद लेता है आंखें
इसी तरह हम भी
शून्य से चलकर मिट जाते हैं शून्य पर
और चलता रहता है
सिलसिला शून्य का निरंतर।
- डिम्पल सिरोही