Wednesday, December 20, 2017

टूटी कलाई से ही उड़ा डाले दुश्मन के तीन टैंक, खूंखार गोरखाओं की ऐसी ही 10 कहानियां


बात 1815 की है। ब्रिटिश आर्मी ने नेपाल को जीतने के लिए प्रयास किया। किन्तु उन्हें नेपाली योद्धाओं गोरखाओं के सामने मुंह की खानी पड़ी। ब्रिटिश अफसरों ने फैसला किया कि गोरखाओं को वे हरा नहीं सकते तो क्यों न उन्हें अपने साथ मिला लिया जाये। ब्रिटिश आर्मी ने शांति प्रस्ताव रखा और गोरखाओं को अपनी सेना में शामिल होने का प्रस्ताव दिया। गोरखाओं ने दोनों विश्व युद्धों के अलावा अनेक लड़ाइयों में भाग लिया। फाकलैंड की लड़ाई में भी गोरखाओं ने अपने जौहर दिखाये। दुनिया में हर कोई गोरखाओं की बहादुरी के आगे नतमस्तक है। कहा जाता है कि जब कोई गोरखा अपनी खुखरी बाहर निकाल लेता है तो वह दुश्मन का खून बहाए बिना म्यान में नहीं जाती। गोरखा टैंक ध्वस्त कर सकते हैं और अकेले ही बटालियनों का मुकाबला कर सकते हैं। आज हम आपको ऐसे गोरखा योद्धाओं के बारे में बता रहे हैं जिन्होंने अकेले अपने दम पर दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिएः

दिपप्रसाद पुन- अकेले 30 तालिबानी को मार डाला


2010 में अफगानिस्तान में कार्यवाहक सार्जेंट दिपप्रसाद पुन अकेले ही रॉकेट लगे ग्रेनेड एवं एके-47 से लैस 30 तालिबानी से भिड़ गया एवं उन सबको मार डाला। पुन ने उन तालिबानी जवानों के सारे हथियार भी लूट लिए। पुन को उसकी अविश्वसनीय बहादुरी के लिए ब्रिटेन के वीरता के दूसरे सबसे बड़े पुरस्कार से नवाजा किया गया।

दोनों हाथों से दुश्मन पर की फायरिंग 

     

गोरखा अपनी सेना के किसी भी जवान को युद्ध के मैदान में घायल या मृत नहीं छोड़ते। जब 2008 में अफगानिस्तान में सैन्य टुकड़ियों के एक दस्ते को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया गया तो इसमें एक जवान युवराज राय बुरी तरह घायल हो गया लेकिन कैप्टन गजेंद्र अंगडेम्बे, धन गुरंग और मंजू गुरंग भारी गोलीबारी के बीच राय को 325 फीट खुले मैदान में ढोकर ले आए। एक बार तो इनमें से एक जवान ने अपनी और राय की राइफल दोनों से ही एक ही साथ दुश्मनों पर जवाबी फायरिंग की।

लछिमन गुरंग- हवा में लपक ग्रेनेड वापस दुश्मन पर फेंके


1945 में, राइफलमैन लछिमन गुरंग केवल दो अन्य जवानों के साथ एक गहरे खंदक में तैनात था जब 200 से अधिक जापानी सैनिकों ने गोलीबारी शुरु कर दी। दुश्मन की तरफ से ग्रेनेड फेंके जाने लगे तो गुरंग ने हवा में ही ग्रेनेड को पकड़ कर उसे वापस फेंकना शुरु कर दिया। दो ग्रेनेड तो उसने वापस दुश्मनों पर फेंक दिए लेकिन तीसरा ग्रेनेड उसके हाथ में ही फट गया जिससे वह बुरी तरह घायल हो गया। घायल होने के बावजूद उसने जापानियों को राइफल द्वारा फायरिंग कर आगे बढ़ने से रोक दिया। बाद में, गुरंग को विक्टोरिया क्रॉस पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

भानुभक्त गुरंग- अकेले मारे दुश्मन के अनेक सैनिक


भानुभक्त गुरंग ने द्वितीय विश्व युद्ध में बर्मा में जापानियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी और उसने एक पूरे बंकर पर लगभग अकेले ही कब्जा कर लिया था जिसके कारण उसे विक्टोरिया क्रॉस पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 10 टुकड़ियों के एक प्लाटून पर दुश्मनों ने बंदूकों, ग्रेनेड, मोर्टार तथा स्निपर से हमला किया। गुरंग ने अकेले ही आगे बढ़कर स्मोक ग्रेनेड, खुखरी तथा पत्थरों और बाद में राइफल की मदद से जापानी सैनिकों को मार डाला।

अगनसिंग राय- खुले मैदान में किया मशीनगनों का मुकाबला


1994 में, अगनसिंग राय ने मशीनगनों एवं दो टैंक -रोधी 37 एमएम बंदूकों के विरूद्ध खुले मैदान में बर्मा की पर्वतमाला में गोरखों के एक प्लाटून का नेतृत्व किया। जान-माल के भारी नुकसान के बावजूद राय एवं उसके जवानों ने दुश्मनों को पूरी तरह खत्म कर दिया। बाद में, राय को विक्टोरिया क्रॉस पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

गंजू लामा- टूटी कलाई और पांव में चोट फिर भी उड़ा दिए तीन टैंक


दूसरे विश्व युद्ध के दौरान राइफलमैन गंजू लामा टूटी हुई बाईं कलाई और दाहिने हाथ और पांव में चोट के बावजूद तीन जापानी टैंकों के खिलाफ डटे रहे। वह लड़ाई के मैदान में रेंग-रेंग कर आगे बढ़ते रहे और अपने ऐंटी-टैंक गन से प्रत्येक टैंक को एक-एक कर मार गिराया। बाद में उन्हें स्ट्रेचर पर लाद कर अस्पताल ले जाया गया। उन्हें विक्टोरिया क्रॉस पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

गजे घेल- घायल होने के बावजूद दुश्मन को दी मात


1943 में जापानी सेना के खिलाफ बर्मा मोर्चे पर एक दूसरी लड़ाई में सार्जेंट गजे घेल को एक ऐसी पोजीशन लेने की जिम्मेदारी दी गई जिस पर कब्जा करने में गोरखा दो बार विफल हो चुके थे। उन्होंने भारी गोलीबारी के बीच अपने प्लाटून का नेतृत्व किया जिसमें उनके पावों, बांहों एवं पूरे बदन पर चोटें आई। लेकिन उन्होंने इसके बावजूद दुश्मनों को मार गिराने में कामयाबी पाई जिसके फलस्वरूप उन्हें विक्टोरिया क्रॉस पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

पीटर जोन्स


कुछ ब्रितानी सैन्य अधिकारियों, जिन्होंने गोरखा सैनिकों का नेतृत्व किया, ने खुद भी असाधारण वीरता का परिचय दिया। कर्नल पीटर जोन्स ने 1943 में ट्यूनिशिया में जर्मनी की सेना के खिलाफ गोरखों की बटालियन का नेतृत्व किया। गोरखों ने अपनी खुखरी से मशीनगन चौकियों पर तैनात जर्मनी के सैनिकों को अपना निशाना बनाना शुरु किया जबकि जोन्स ने तोपों को नष्ट कर दिया। जोन्स की पहले गर्दन और फिर आंख तथा जांघ घायल हुई लेकिन उन्होंने मैदान नहीं छोड़ा। उन्हें विशिष्ट सेवा ऑर्डर सम्मान से पुरस्कृत किया गया।

विष्णु श्रेष्ठ- अकेले किया 40 लुटेरों का मुकाबला, 3 को मार गिराया


2011 में, 35 वर्षीय सेना से सेवानिवृत्त गोरखा विष्णु श्रेष्ठ भारत में एक रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे थे जब 40 लुटेरों ने गाड़ी रोक दी और यात्रियों को लूटना शुरु कर दिया। विष्णु श्रेष्ठ ने अपनी खुखरी की मदद से चाकुओं, तलवारों और पिस्तौलों से लैस लुटेरों का सामना किया। श्रेष्ठ ने तीन लुटेरों को मार डाला, आठ को घायल कर दिया जिससे लुटेरे भाग खड़े हुए। उन्होंने एक महिला यात्री की इज्जत भी बचाई।

रामबहादुर लिम्बु- दुश्मन के इलाके से ले आए अपने साथियों को


वर्ष 1965 में, बोरनेयो युद्ध मोर्चे पर लड़ाई के दौरान कैप्टन रामबहादुर लिम्बु तीन बार दुश्मन के क्षेत्र में जा घुसे और भारी गोलीबारी का सामना करते हुए न केवल अपने घायल और मृत जवान को दुश्मन के क्षेत्र से वापस ले आए बल्कि दुश्मनों को पीछे हटने को भी मजबूर कर दिया। उन्हें विक्टोरिया क्रॉस पुरस्कार से सम्मानित

Thursday, November 9, 2017

दुनिया में ऐसे शुरू हुआ था फौजियों के छोटे बाल रखने का चलन, जानें 9 खास बातें


फौजी कट या क्रू कट किसी भी फौजी की पहली पहचान होती है अक्सर हम पूरी दुनिया में फौजियों को हमेशा ही छोटे और एक जैसे हेयरकट में देखते हैं इसे आम तौर पर ‘फौजी कट’ भी कहा जाता है। ये हेयरस्टाइल न सिर्फ सैनिकों में बल्कि आम ब्वॉयज भी स्टाइलिश दिखने के लिए सैलून में इस पॉप्युलर हेयर कट की डिमांड करते हैं। लेकिन आप शायद नहीं जानते होंगे कि आर्मी सोल्जर्स की इस फौजी कट के पीछे की वास्तविक कहानी क्या है। आम नागरिकों के लिए यह हेयरस्टाइल एक फैशनेबल और स्टाइलिश चीज हो सकती है लेकिन युद्ध के मैदान में लड़ने वाले सैनिकों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण है। आइए आज आपको बताते हैं मिलिट्री कट से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें।

प्रथम विश्वयुद्ध से शुरू हुआ था चलन


प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान बाल छोटे रखने का चलन सर्वप्रथम अमेरिकी सेना द्वारा शुरू किया गया था। युद्ध के दौरान गैस मास्क पहनने में आने वाली परेशानी के कारण जवानों से गंजा होने की मांग की जाने लगी। छोटे बाल दुश्मन की पकड़ में न आएं इसलिए भी ये चलन शुरू किया गया। जब विश्व युद्ध के दौरान, युद्ध के  दौरान अमेरिकी सैनिकों अपने सिर में होने वाली जूंओं से परेशान हो गए थे जब कोई उपाय कारगर नहीं हुआ तो अफसरों ने सैनिको को बाल छोटे कराने का आदेश दिया और इस तरह ज्यादातर सैनिकों ने जूंओं पर नियंत्रण पाने के लिए बाल छोटे करा डाले धीरे धीरे यह एक ट्रेंड बन गया और ब्रिटेन में भी ये हेयरस्टाइल काफी लोकप्रिय हो गया लेकिन ब्रिटेन के सैनिकों ने हेयरकट की एक अलग सहेली विकसित की जिसमें सिर के पीछे और साइड के बालों को काफी छोटा रखा जाता था।

20वीं शताब्दी में किया गया अनिवार्य


द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जवानों को बाल व नाखून छोटे रखने को कहा जाता था, जबकि नौसेना के जवान मीडियम हेयरकट रखते थे 1950 के दशक में इस हेयरस्टाइल की लोकप्रियता में बढ़ोत्तरी हुई और यहां तक कि स्कूलों व कॉलेजों में भी इस हेयरकट का प्रचालन शुरू हो गया और सेना ने इसे सैनिकों के लिए अनिवार्य कर इस दौरान विभिन्न रूप में जैसे प्रिंसटन कट, हार्वर्ड क्लिप, स्टैंडर्ड क्रू कट, कॉलेज कट, ओलिंपिक कट और फ्रांसीसी क्रॉप जैसी हेयरस्टाइल के रूप में लोकप्रियता मिली।। 20वीं शताब्दी में धीरे-धीरे सेना खास तौर पर आर्मी, नेवी और एयरफोर्स ने इसे अपने अनुशासन में शामिल कर लिया और ये हेयरकट जवानों की पहचान बन गए।

यहां भी कई स्टाइल


पर्सनल अपीयरेंस अनुशासन की शुरुआत होती है। यही कारण है कि आर्मी ज्वाइन करने वाले कैडेट्स को एक न्य लुक मिलता है जो उन्हें ज्यादा शार्प और आत्मविश्वास से पूर्ण बनाता है। उनके इस लुक की शुरुआत होती है इंट्रोडक्सन कट से जो उनके बालों को एक नई शेप देता है। इसके अलावा विश्व की भिभिन्न सेनाओं में प्रचलित हेयरकट में इंट्रोडक्सन कट,  बर कट, बुच कट, क्रू कट, फेड,फ्लेट टॉप, हाई एंड टाईट आदि शामिल हैं।

जुओं से छुटकारा


प्रथम और द्वीतीय विश्व युद्ध के समय सैनिक ज्यादातर समय युद्धस्थल पर बिताने के कारण नहाने, बालों को धोने और उनके रख-रखाव के लिए ज्यादा समय नहीं होता। इसलिए जवानों को बाल छोटे रखना ज्यादा सुविधाजनक होता है।

ध्यान भंग कर सकते हैं बड़े बाल


बड़े बाल कई बार कंधे पर रखी उनकी राइफल में न उलझें या उनकी आंखों पर न आएं, क्योंकि लंबे बाल उन्हें उनके लक्ष्य से भटका सकते हैं, उनका ध्यान सीधा दुश्मन पर रहे इसलिए जवानों के बाल अक्सर छोटे ही होते हैं।

बीमारी से बचाव और कम खर्चा


छोटे बालों को सूखने में बहुत कम समय लगता है जबकि जवानों को यदि किसी नदी से गुजरना हो बारिश में भीगना हो तो बाल भीग जाने पर उन्हें सर्दी-जुकाम होने का डर नहीं रहता क्योंकि छोटे बाल जल्दी सूख जाते हैं।

 महिलाओं पर भी लागू होती है ये बात


सेना में महिलाओं पर भी शॉर्ट इज बैटर स्टाइल लागू होती है लेकिन उन्हें अपने बालों को साफ और व्यवस्थित रखने को कहा जाता है। उन्हें अपने बाल शर्ट के कॉलर तक रखने की इजाजत होती है इसीलिए फीमेल सोल्जर्स और आॅफिसर्स को हेयर कैप पहनना पड़ती है।

सिक्ख  सैनिक रख सकते हैं बड़े बाल 


हां सिख सैनिकों चाहे वह अमेरिकी सेना में हों या भारतीय सेना में उन्हें धार्मिक कारणों से लम्बे बाल रखने की इजाज़त होती है। लेकिन उन्हें भी साफ़ सफाई और अनुशाशन का ख़ास ख़याल रखना होता है और इसके लिए वह सर पर यूनिफोर्म के रंग की ही पगड़ी पहनते हैं।

एकता और अनुशासन का प्रतीक


जवानों की लाइफ बहुत ही अनुशासनात्मक होती है और वर्दी की तरह ही एक जैसा हेयरस्टाइल उनमें एकता और अनुशासन का भाव बनाए रखता है। भले ही ये एक अनिवार्य चीज हो लेकिन जवानों ने इस मिलिट्री कट को एक स्टाइल स्टेटमेंट बना दिया है, लेकिन एक बात जरूर है कि ये स्टाइल जवानों के लिए शायद इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि ये उन्हें किसी आम नागरिक से ज्यादा कॉन्फिडेंट, ज्यादा स्मार्ट और ज्यादा शार्प बनाता है।

Friday, November 3, 2017

दुनिया के 10 प्रसिद्ध घोड़े जिन्होंने युद्ध में पलट दी थी बाजी, इसलिए किये जाते हैं याद


इतिहास गवाह है कि घोड़ों के बल पर कई बड़े युद्ध लड़े गये। कई लड़ाइयों का फैसला केवल अश्व और अश्वारोहियों (घुड़सवारों) की बदौलत हुआ। आज हम आपको महाराणा प्रताप के विख्यात घोड़े चेतक के बारे में तो बताएंगे ही साथ ही सिकंदर समेत दुनिया के तमाम महान योद्धाओं के घोड़ों के साहसिक कारनामों के बारे में भी बताएंगे। आइए जानते हैं युद्ध के दौरान प्रयोग किए गये 10 घोड़ों (युद्ध अश्वों) की कहानियां, जो कहीं अधिक चर्चा की हकदार है :

चेतक


चेतक उत्तर भारत के राजपूत राजा महाराणा प्रताप का घोड़ा था। चेतक की मौत 21 जून, 1576 को हल्दीघाटी की लड़ाई में लगी चोटों की वजह से हुई थी। यह लड़ाई मुगलों और राजपूतों के बीच हुई थी। राजस्थान के हल्दी घाटी में उसके नाम पर एक स्मारक भी बनाया गया है। चेतक का नाम कई कविताओं और लोकगीतों में आता है।

BUCEPHALUS



Bucephalus  इतिहास का पहला विख्यात घोड़ा था जिसे सिकंदर महान ने मात्र 13 वर्ष की उम्र में खरीदा था। Bucephalus  ने अनगिनत युद्धों में सिकंदर का साथ दिया था और उसकी मौत ईसा पूर्व 326 ईस्वी में भारतीय राजा पॉरस के साथ लड़ाई में लगी चोटों के कारण हुई। सिकंदर ने उसकी याद में झेलम नदी के तट पर Bucephala नामक शहर की स्थापना की जो अब पाकिस्तान में है।

SERGEANT RECKLESS


Sergeant Reckless अब तक के सबसे चर्चित युद्ध अश्वों में से एक थी जो अमेरिकी सेना के पास थी। Sergeant Reckless अपनी बुद्धिमता और क्षमता के साथ सोलो ट्रिप (अकेले यात्रा करने) लगाने के लिए विख्यात थी। उसका उपयोग कोरिया युद्ध के दौरान रसद पहुंचाने, हथियारों को ढोने तथा घायल जवानों को सैन्य स्थल से दूर ले जाने के लिए किया गया। 1953 में आउटपोस्ट वेगास की लड़ाई के दौरान उसने एक ही दिन में 51 सोलो ट्रिप लगाए थे। उसे 1954 में सार्जेंट की उपाधि दी गई। उसकी मौत 1968 में हुई। उसका चयन लाइफ मैगजीन ने 100 सर्वकालिक बहादुर घोड़ों में किया था।

TRAVELLER


ट्रैवेलर अमेरिकी गृह यृद्ध के दौरान कंफेडेरेट्स सेना के कमान अधिकारी जनरल रॉबर्ट ई.ली का पसंदीदा घोड़ा था। लड़ाई में अपनी गति, ताकत और हिम्मत के मामले में उसका कोई सानी नहीं था। 1871 में Traveller को टिटेनस हो गया और असहनीय दर्द से मुक्ति दिलाने के लिए उसे गोली मार दी गई थी।

KASZTANKA


Kasztanka पोलैंड युद्ध के बहादुर मार्शल Jozef Pilsudski की चर्चित घोड़ी थी जो अखरोट के रंग के कारण विख्यात थी। उसने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ऑस्ट्रिया-हंगरी तथा जर्मनी के खिलाफ लड़ाइयों में बखूबी अपने मालिक का साथ निभाया। Jozef Pilsudski ने Kasztanka  पर आखिरी सवारी पोलैंड के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर 11 नवंबर, 1927 को वारसा में की। उसकी मौत 23 नवंबर, 1927 में हुई।

MARENGO


Marengo फ्रांस के विख्यात बादशाह नेपोलियन बोनापार्ट का बेहद चर्चित युद्ध अश्व था जिसे यह नाम फ्रांस और ऑस्ट्रिया के बीच Marengo के युद्ध में उसकी आश्चर्यजनक क्षमताओं को देखते हुए दिया गया था। Marengo मूल रूप से मिस्त्र की नस्ल का था जिसे 1799 में आयात कर फ्रांस लाया गया था। उसने चर्चित वॉटरलू समेत अनगिनत लड़ाइयों में नेपोलियन का साथ निभाया। वॉटरलू की लड़ाई में Marengo को बंदी बना कर इंग्लैंड लाया गया जहां 1831 में उसकी मौत होने तक वह रही।

PALAMO


Palomo एक ऊंचे कद, लंबी पूंछ और सफेद रंग लातिनी अमेरिका के ‘उद्धारक‘ सिमोन बोलिवर का घोड़ा था जिसे एक किसान महिला ने उपहार में इस महान जनरल को दिया था। बोलिवर ने उद्धार संघर्ष से संबंधित कई अभियानों में उस पर सवारी की। एक लंबी यात्रा के बाद Palomo की मृत्यु हो गई। उसके पांव के नाल मुलालो के संग्रहालय में रखे गए हैं।

COPENHAGEN


Copenhagen ड्यूक ऑफ वेलिंगटन, लॉर्ड ऑर्थर वेलेजली का विख्यात युद्ध अश्व था जिसे जनरल ग्रॉसेवेनौर ने पाला था। लॉर्ड वेलिंगटन ने कई सैन्य अभियानों में उस पर सवारी की। Copenhagen 1815 के वॉटरलू युद्ध में जनरल के साथ था जिसने नेपोलियन बोनापार्ट को हराया था। युद्ध के बाद अपने आखिरी दिन Copenhagen ने ड्यूक के अस्तबल में काटे।

CINCINNATI


Cincinnati अमेरिकी गृह युद्ध के जनरल तथा राष्ट्रपति Ulysses S. Grant के तीन विख्यात युद्ध अश्वों में एक था। Cincinnati ने कई अभियानों में जनरल का साथ दिया जिसका जिक्र ग्रांट ने अपने कई चर्चित संस्मरणों में किया है। बाद में, अब्राहम लिंकन भी Cincinnati के प्रशंसकों में से रहे जिन्होंने उस पर रोजाना सवारी की। Cincinnati की मौत मैरीलैंड स्थित एडमिरल डैनिएल अमेन के फार्म में 1878 में हुई।

COMANCHE


Comanche अमेरिकी सेना का एक चर्चित घोड़ा था जो Little Bighorn की लड़ाई में जीवित बच गया था। अमेरिकी सेना ने इसे 1868 में खरीदा था और 7वीं घुड़सवार सेना के कैप्टन Myles Keogh उस पर सवारी किया करते थे। Little Bighorn की लड़ाई में, जिसमें कोई भी सैनिक जीवित नहीं बचा था, Myles Keogh के घायल होने के बावजूद Comanche उन्हें सुरक्षित वापस ले आया। मरने के बाद Comanche की सैन्य तरीके से अंत्येष्टि की गई जो एक बेहद दुर्लभ अवसर था।

Tuesday, July 4, 2017

कभी देखा है ‘आर्मी थीम’ वाला रेस्टोरेंट !




खाकीऑलिव ग्रीन सोफेचेयर-टेबल और आर्मी प्रिंट वाले परदों को देखते ही यकीनन आप खुद को एक फौजी से कम नहीं समझेंगे। यहां का फूड मैन्यु आर्मी की बुकलेट जैसा है। यहां आपको बर्गर भी ऑलिव कलर का मिलेगा। जी हाँदरअसल हम बात कर रहे हैं एक ऐसे रेस्टोरेंट की जिसमें आप शायद पहले कभी नहीं गए होंगें। रेस्टोरेंट के भीतर जाते ही आप महसूस करेंगे कि आप किसी रेस्टोरेंट में नहींबल्कि एक 'आर्मी बैरकया 'आर्मी कैंपमें डिनर कर रहे हैं। वैसे तो आपने बहुत से रेस्टोरेंट देखें होंगेलेकिन पूरी तरह 'आर्मी थीमपर आधारित रेस्टोरेंट में कभी खाना खाया होगा। अगर आप रात का खाना रेस्टोरेंट (डाइन आउट) में खाने का प्लान कर रहे हैं तो आपको इंडिया के इन खास रेस्टोरेंट्स में जरूर जाना चाहिए।

सेपॉय 'द आर्मी लाउंज'

सेपॉय 'द आर्मी लाउंज' (जयपुर)

जयपुर में जवाहर लाल नेहरु मार्ग पर स्थित ये रेस्टोरेंट भी आर्मी थीम पर आधारित है 'सेपॉयमें सैन्य दृश्यों वाले 1,000 वर्ग फीट के इनसाइड एरिया के साथ 1,000 वर्ग फीट के टेरेस एरिया हैजहां गैस्ट लाइव म्यूजिक स्टेज और हुक्का बार का आनंद ले सकते हैं। आर्मी लाउंज में फर्नीचर के तौर पर बड़े बैरलबॉक्स रखे गए हैं। रोशनी के लिए रेट्रो लट्टू बल्ब लगाए गए हैं। यही नहींआपको अपने आस-पास आर्मी हेलमेट्सबुलेट्सटायर्स जैसी चीजें भी नजर आएंगी।

यहां ले सकते हैं लाइव म्यूजिक का आनंद 

सेपॉय 'द आर्मी लाउंज' (जयपुर)

ओपन एरिया में आर्मी वेश जैसे ही पंडाल भी लगाए गए हैं। रेस्टोरेंट का कांसेप्ट मेहमानों को फौज के अंदाज में फूड और एंटरटेनमेंट प्रदान करना है। यहां पहुंचने पर आप खुद को 'आर्मी कैंपमें होने जैसा महसूस करेंगे। इसकी खास बात ये है कि यहाँ आपको आर्मी थीम आधारित अलग-अलग नाम वाली कुछ खास ड्रिंक्स भी सर्व की जाती हैं। इस खास रेस्टोरेंट के बारे में इतना सब कुछ जानकर आप रेस्टोरेंट में एक बार जरूर जाना चाहेंगे।

बंकर 'द आर्मी थीम कैफे'

बंकर 'द आर्मी थीम कैफे' (गुडगांव)

गुड़गांव के हेमिलटन रोड स्थित क्रॉसपाइंट मॉल में स्थित 'बंकरअपने आप में एक अनोखा रेस्टोबार है। इस रेस्टोबार को पूरी तरह 'आर्मी भोजनालयकी तरह बनाया गया है और सेना से सम्बंधित कलाकृतियों से डेकोरेट किया गया है। यहाँ दीवारों पर लगी आर्मी से सम्बंधित तस्वीरेंआर्मी प्रिंट वाले परदे और बड़े जाल खाने का इंतजार कर रहे लोगों में इस जगह के बारे में जानने लिए एक खास दिलचस्पी पैदा करते हैं।

स्पेशल  डिश और खास बार भी है मौजूद 

बंकर 'द आर्मी थीम कैफे' (गुडगांव)

रेस्टोरेंट के अंत में एक पूर्ण व्यवस्थित बार भी हैजिसे आर्मी थीम पर ही सजाया गया है। यहां आपको खास डिजाइन के कंटेनर से कॉकटेल व मॉकटेल सर्व की जाती हैं। यही नहींरेस्टोरेंट में आप लाइव सिंगिंग शो का भी मजा ले सकते हैं।

38 बैरेक्स 'द फिलिंग स्टेशन'

38 बैरेक्स 'द फिलिंग स्टेशन' (नई दिल्ली)

दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित '38 बैरेक्स मिलट्री कैफेऔर रेस्टोरेंट में आप केजुअल डाइनिंग तथा बार का लुत्फ़ उठा सकते हैं। रेस्टोबार के फ़ूड मैन्यु को आर्मी को ध्यान में रखकर ही बनाया गया है। 'आमुचे बचेखट्टे बैंगनऑलिव चिकन जैसे नाम की डिश ऑर्डर करने के ऑप्शन मिलेंगे। ये रेस्टोरेंट आपको ओल्ड आर्मी डेज का फील कराएगा।

यहां होगा आर्मी के रेट्रो लुक का एहसास

38 बैरेक्स 'द फिलिंग स्टेशन' (नई दिल्ली)

रेस्टोरेंट की दीवारों को राइफलआर्मी मैडलपुरानी दीवार घड़ी आदि से सजाया गया है। लाइट के लिए रेट्रो बल्ब लगाए गए हैं। कैफे का फर्नीचर खाकी और कत्थई हैजो वुडन और आयरन से बना हुआ है। कैफे की दीवारेफर्श और सीलिंग पर खाकीसफ़ेदआसमानीऑलिव और ब्राउन कलर्स का इस्तेमाल किए गए हैं।


बहरहालइस तरह के रेस्टोरेंट्स में डिनर और आर्मी थीम्स का कॉकटेल अपने आप में अनोखा और मनमोहक है। सेना के साजो-सामान के बीच डिनर करना ये हमें सेना के प्रति सम्मान की सीख भी देता है।