फील्ड मार्शल कोडंडेरा मडप्पा करिअप्पा भारतीय सेना के प्रथम कमांडर-इन-चीफ थे। के.एम. करिअप्पा ने साल 1947 के भारत-पाक युद्ध में पश्चिमी सीमा पर सेना का नेतृत्व किया था। भारतीय थलसेना के जिन दो अधिकारियों को फील्ड मार्शल का रैंक दिया गया उनमें करिअप्पा भी हैं। फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ दूसरे ऐसे अधिकारी थे। वह सेना में लगभग तीन दशक तक रहे। 15 जनवरी 1949 को उन्हें सेना प्रमुख नियुक्त किया गया। फील्ड मार्शल करिअप्पा राजपूत रेजीमेन्ट से थे। वर्ष 1953 में रिटायर होने के बाद भी वह किसी न किसी रूप में भारतीय सेना को अपना योगदान देते रहे।
28 जनवरी, 1899 को कुर्ग (कर्नाटक) के शनिवर्सांथि में जन्मे करिअप्पा के पिता कोडंडेरा माडिकेरी में राजस्व अधिकारी थे। करिअप्पा को परिवार के सभी सदस्य ‘चिम्मा’ कहकर पुकारते थे। उनके तीन भाई तथा दो बहनें भी थीं।करिअप्पा ने 1937 में मुथू मचिया से विवाह किया जिनसे एक बेटा और एक बेटी हुई। करिअप्पा के बेटे के सी नंदा करिअप्पा इंडियन एयरफोर्स में एयर मार्शल के रैंक पर थे।
करिअप्पा की प्राथमिक शिक्षा माडिकेरी के सेंट्रल हाई स्कूल में हुई। वह शुरुआत से ही पढ़ाई में काफी तेज थे और गणित, पेंटिंग उनके पसंदीदा विषय थे। जब भी उन्हें खाली वक्त मिलता वह कैरीकेचर बनाते थे। उनकी स्कूली शिक्षा साल 1917 में पूरी हुई, जिसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए उसी साल उन्होंने चेन्नई के प्रेसीडेंसी कालेज में दाखिला ले लिया। पढ़ाई के साथ-साथ करिअप्पा क्रिकेट, हॉकी और टेनिस के अच्छे खिलाड़ी भी थे। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही उनका सेलेक्शन सेना में अधिकारी के तौर पर हो गया।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद राष्ट्रवादियों ने ब्रिटिश सरकार से भारतीयों को भी सेना में कमीशन देने की मांग की जिसे मान लिया गया। सख्त जांच और परीक्षण के बाद के एम करिअप्पा को उस पहले दल में शामिल कर लिया गया जिसे कठोर प्री-कमीशन प्रशिक्षण दिया जाना था। साल 1919 में वह KCIO (King’s Commissioned Indian Officers) के पहले दल में सम्मिलित किये गए जिन्हें इंदौर के डैली कॉलेज में प्रशिक्षण दिया गया। उसके बाद उन्हें कर्नाटक इन्फेंटरी में बतौर टेम्पररी सेकंड लेफ्टिनेंट कमीशन दिया गया। साल 1921 में उन्हें टेम्पररी लेफ्टिनेंट बना दिया गया और 1922 में उन्हें स्थायी कमीशन दिया गया और वह ‘सेकंड लेफ्टिनेंट’ बनाये गए। फिर करिअप्पा को सन 1923 में लेफ्टिनेंट के पद पर पदोन्नत किया गया।
साल 1927 में करिअप्पा को कैप्टन के पद पर पदोन्नत कर दिया गया पर इस पदोन्नति को साल 1931 तक सरकारी तौर पर राजपत्रित का दर्जा नहीं दिया गया। इसके बाद उन्होंने डोगरा रेजिमेंट के साथ इराक में अपनी सेवाएं दीं। सन 1933 में क्वेटा के 'स्टाफ कॉलेज' में प्रशिक्षण कोर्स करने वाले वह पहले भारतीय अधिकारी बने। 1938 में उन्हें मेजर के पद पर पदोन्नत किया गया। उसके अगले साल ही उन्हें स्टाफ कैप्टन बना दिया गया।
साल 1941-42 में उन्हें इराक, सीरिया और ईरान में तैनात किया गया और सन 1943-44 में उन्होंने म्यांमार में अपनी सेवाएं दीं। साल 1942 में किसी यूनिट का कमांड पाने वाले वह पहले भारतीय अधिकारी बने। 1944 में उन्हें टेम्पररी लेफ्टिनेंट कर्नल बना दिया गया। इसके बाद उन्होंने स्वेच्छा से 26वीं डिवीजन को अपनी सेवाएं दीं जो म्यांमार से जापानियों को निकालने में कार्यरत थी। यहां उन्हें ‘ऑफिसर ऑफ़ द आर्डर ऑफ़ द ब्रिटिश एम्पायर’ दिया गया। जुलाई 1946 में उन्हें पूर्ण लेफ्टिनेंट कर्नल का पद दिया गया और उसी साल उन्हें फ्रंटियर ब्रिगेड ग्रुप का ब्रिगेडियर बना दिया गया। साल 1947 में उन्हें ‘इम्पीरियल डिफेन्स कॉलेज’ यूनाइटेड किंगडम, में एक प्रशिक्षण कोर्स के लिए चुना गया। इस कोर्स के लिए चुने जाने वाले वह पहले भारतीय अधिकारी थे। भारत विभाजन के समय उन्हें सेना के बंटवारे की जिम्मेदारी सौंपी गयी जिसे उन्होंने पूरी निष्ठा से पूरा किया।
देश की आजादी के बाद करिअप्पा को मेजर जनरल रैंक के साथ ‘डिप्टी चीफ ऑफ़ द जनरल स्टाफ’ नियुक्त किया गया। जब उनकी पदोन्नति लेफ्टिनेंट जनरल के तौर पर हुई तब उन्हें ईस्टर्न आर्मी का कमांडर बना दिया गया। सन 1947 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय उन्हें पश्चिमी कमान का जनरल ऑफिसर कमांडर इन चीफ बनाया गया। उनके नेतृत्व में ज़ोजिला, द्रास और कारगिल पर पुनः कब्ज़ा किया गया। कठिन परिस्थितियों में भी के एम करिअप्पा ने जिस स्फूर्ति के साथ अपनी सेना का जिस प्रकार से नेतृत्व किया उसके बाद लगभग उनका अगला कमांडर इन चीफ बनना तय हो गया। 15 जनवरी 1949 को के एम करिअप्पा को भारतीय सेना का प्रमुख चुना गया। इस प्रकार सेना का कमांडर इन चीफ बनने वाले वे पहले भारतीय हो गए।
वर्ष 1965 में भारत पाकिस्तान के युद्ध से काफी पहले करिअप्पा सेवा-निवृत्त हो चुके थे। इस युद्ध में उनके बेटे केसी नंदा करिअप्पा भारतीय वायुसेना में फ्लाइट लेफ्टिनेंट थे। युद्ध के दौरान नंदा को पाकिस्तानी सैनिकों ने युद्ध बंदी बना लिया। उस वक़्त पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख जनरल अयूब खान पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे। अयूब को जब करिअप्पा के बेटे को युद्धबंदी बना लिए जाने के बारे में मालूम चला तो उन्होंने तुरंत करिअप्पा को फोन कर कहा यदि वह चाहें तो उनके बेटे को रिहा किया जा सकता है। करिअप्पा ने कहा- ‘अब वो मेरा बेटा नहीं, भारत मां का लाल है। उसके साथ बाकी कैदियों जैसा ही बर्ताव किया जाए आपने मुझे फोन किया, इसके लिए शुक्रिया, लेकिन मेरी आपसे गुजारिश है कि सभी युद्ध बंदियों को रिहा कर दीजिए या किसी को भी नहीं। 'उनके बेटे ने अपने पिता पर एक बायोग्राफी भी लिखी जिसका टाइटल था- ‘फील्ड मार्शल के एम करिअप्पा’।
साल 1953 में वह भारतीय सेना से रिटायर हो गए और उन्हें ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भारत का उच्चायुक्त नियुक्त किया गया। जहां उन्होंने 1956 तक अपनी सेवाएं दीं। एक वरिष्ठ अनुभवी अधिकारी के नाते उन्होंने कई देशों की सेनाओं के पुनर्गठन में भी सहायता की। उन्होंने चीन, जापान, अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और कई और यूरोपीय देशों की यात्रा की।
अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन ने उन्हें ‘आर्डर ऑफ़ द चीफ कमांडर ऑफ़ द लीजन ऑफ़ मेरिट’ से सम्मानित किया। देश को दी गयी उनकी सेवाओं के लिए भारत सरकार ने सन 1986 में उन्हें ‘फील्ड मार्शल’ का पद प्रदान किया। सेवानिवृत्ति के बाद के.एम.करिअप्पा कर्नाटक के कोडागु जिले के मदिकेरी में बस गए। वह प्रकृति प्रेमी थे। उन्होंने लोगों को पर्यावरण संरक्षण के बारे जागरूक किया। 94 साल की उम्र में करिअप्पा का निधन 15 मई 1993 को बेंगलुरू में हुआ।
15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता मिलने के बाद सेना की कमान ब्रिटिश सेना अधिकारी सर फ्रांसिस बूचर के ही हाथों में थी। उस समय भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू सेना की कमान भारतीय हाथों में सौंपने को लेकर चिंतित थे। नेहरू को संदेह था कि इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी के लिए भारतीय सेना अधिकारी के पास अनुभव नहीं है। वह चाहते थे कि अभी कुछ साल सेना की कमान ब्रिटिश जनरल के हाथों में ही रहने दी जाए। ऐसे में करिअप्पा ने कहा 'सर अनुभव तो हमें देश का प्रधानमंत्री बन कर देश चलाने का भी नहीं था, लेकिन आप सफलतापूर्वक यह कार्य कर रहे हैं।' प्रधानमंत्री ने तब निर्णय किया और 15 जनवरी 1949 को भारतीय सेना की कमान ब्रिटिश जनरल सर फ्रांसिस बूचर से जनरल के.एम. करिअप्पा के हाथों में आ गई, तभी से इस दिन यानी 15 जनवरी को ‘सेना दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
नयी दिल्ली में इंडिया गेट पर 'अमर जवान ज्योति' पर कुर्बान हुए भारतीय सेना के सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए 15 जनवरी को सेना दिवस के रुप में मनाने का फैसला किया गया था। श्रद्धांजलि देने के बाद भारतीय सेना में नयी तकनीक और उपलब्धियों को दर्शाने के लिए मिलिट्री प्रदर्शनियों सहित एक उत्कृष्ट परेड होती है। इस महान अवसर पर बहादुरी पुरस्कार और सेना मेडल दिए जाते हैं। भारतीय सेना के जवानों (भारतीय सेना बैंड्स) द्वारा सेना दिवस उत्सव के दौरान सेना दिवस परेड प्रस्तुत की जाती है।
भारतीय सेना के पहले कमांडर इन चीफ फील्ड मार्शल के. एम. करिअप्पा को भारत रत्न देने की मांग कई बार उठी है। वर्तमान आर्मी चीफ जनरल बिपिन रावत ने भी पिछले दिनों कहा, वक्त आ गया है कि इस अवॉर्ड के लिए फील्ड मार्शल करियप्पा का नाम लिया जाए। यदि ये अवॉर्ड बाकी लोगों को दिया जा सकता है, तो ऐसा कोई कारण नहीं है कि ये करिअप्पा को न मिले, वह इसके हकदार हैं। हम जल्द ही इस मुद्दे पर अपनी बात रखेंगे।
‘चिम्मा’ था करिअप्पा का बचपन का नाम
28 जनवरी, 1899 को कुर्ग (कर्नाटक) के शनिवर्सांथि में जन्मे करिअप्पा के पिता कोडंडेरा माडिकेरी में राजस्व अधिकारी थे। करिअप्पा को परिवार के सभी सदस्य ‘चिम्मा’ कहकर पुकारते थे। उनके तीन भाई तथा दो बहनें भी थीं।करिअप्पा ने 1937 में मुथू मचिया से विवाह किया जिनसे एक बेटा और एक बेटी हुई। करिअप्पा के बेटे के सी नंदा करिअप्पा इंडियन एयरफोर्स में एयर मार्शल के रैंक पर थे।
स्कूल में थे होनहार विद्यार्थी
करिअप्पा की प्राथमिक शिक्षा माडिकेरी के सेंट्रल हाई स्कूल में हुई। वह शुरुआत से ही पढ़ाई में काफी तेज थे और गणित, पेंटिंग उनके पसंदीदा विषय थे। जब भी उन्हें खाली वक्त मिलता वह कैरीकेचर बनाते थे। उनकी स्कूली शिक्षा साल 1917 में पूरी हुई, जिसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए उसी साल उन्होंने चेन्नई के प्रेसीडेंसी कालेज में दाखिला ले लिया। पढ़ाई के साथ-साथ करिअप्पा क्रिकेट, हॉकी और टेनिस के अच्छे खिलाड़ी भी थे। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही उनका सेलेक्शन सेना में अधिकारी के तौर पर हो गया।
ऐसे बने सेना में लेफ्टिनेंट
प्रथम विश्व युद्ध के बाद राष्ट्रवादियों ने ब्रिटिश सरकार से भारतीयों को भी सेना में कमीशन देने की मांग की जिसे मान लिया गया। सख्त जांच और परीक्षण के बाद के एम करिअप्पा को उस पहले दल में शामिल कर लिया गया जिसे कठोर प्री-कमीशन प्रशिक्षण दिया जाना था। साल 1919 में वह KCIO (King’s Commissioned Indian Officers) के पहले दल में सम्मिलित किये गए जिन्हें इंदौर के डैली कॉलेज में प्रशिक्षण दिया गया। उसके बाद उन्हें कर्नाटक इन्फेंटरी में बतौर टेम्पररी सेकंड लेफ्टिनेंट कमीशन दिया गया। साल 1921 में उन्हें टेम्पररी लेफ्टिनेंट बना दिया गया और 1922 में उन्हें स्थायी कमीशन दिया गया और वह ‘सेकंड लेफ्टिनेंट’ बनाये गए। फिर करिअप्पा को सन 1923 में लेफ्टिनेंट के पद पर पदोन्नत किया गया।
इराक में भी दिन अपनी सेवाएं
साल 1927 में करिअप्पा को कैप्टन के पद पर पदोन्नत कर दिया गया पर इस पदोन्नति को साल 1931 तक सरकारी तौर पर राजपत्रित का दर्जा नहीं दिया गया। इसके बाद उन्होंने डोगरा रेजिमेंट के साथ इराक में अपनी सेवाएं दीं। सन 1933 में क्वेटा के 'स्टाफ कॉलेज' में प्रशिक्षण कोर्स करने वाले वह पहले भारतीय अधिकारी बने। 1938 में उन्हें मेजर के पद पर पदोन्नत किया गया। उसके अगले साल ही उन्हें स्टाफ कैप्टन बना दिया गया।
'ऑफिसर ऑफ द आर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर'
साल 1941-42 में उन्हें इराक, सीरिया और ईरान में तैनात किया गया और सन 1943-44 में उन्होंने म्यांमार में अपनी सेवाएं दीं। साल 1942 में किसी यूनिट का कमांड पाने वाले वह पहले भारतीय अधिकारी बने। 1944 में उन्हें टेम्पररी लेफ्टिनेंट कर्नल बना दिया गया। इसके बाद उन्होंने स्वेच्छा से 26वीं डिवीजन को अपनी सेवाएं दीं जो म्यांमार से जापानियों को निकालने में कार्यरत थी। यहां उन्हें ‘ऑफिसर ऑफ़ द आर्डर ऑफ़ द ब्रिटिश एम्पायर’ दिया गया। जुलाई 1946 में उन्हें पूर्ण लेफ्टिनेंट कर्नल का पद दिया गया और उसी साल उन्हें फ्रंटियर ब्रिगेड ग्रुप का ब्रिगेडियर बना दिया गया। साल 1947 में उन्हें ‘इम्पीरियल डिफेन्स कॉलेज’ यूनाइटेड किंगडम, में एक प्रशिक्षण कोर्स के लिए चुना गया। इस कोर्स के लिए चुने जाने वाले वह पहले भारतीय अधिकारी थे। भारत विभाजन के समय उन्हें सेना के बंटवारे की जिम्मेदारी सौंपी गयी जिसे उन्होंने पूरी निष्ठा से पूरा किया।
1949 में करिअप्पा को चुना गया पहला भारतीय सेना प्रमुख
देश की आजादी के बाद करिअप्पा को मेजर जनरल रैंक के साथ ‘डिप्टी चीफ ऑफ़ द जनरल स्टाफ’ नियुक्त किया गया। जब उनकी पदोन्नति लेफ्टिनेंट जनरल के तौर पर हुई तब उन्हें ईस्टर्न आर्मी का कमांडर बना दिया गया। सन 1947 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय उन्हें पश्चिमी कमान का जनरल ऑफिसर कमांडर इन चीफ बनाया गया। उनके नेतृत्व में ज़ोजिला, द्रास और कारगिल पर पुनः कब्ज़ा किया गया। कठिन परिस्थितियों में भी के एम करिअप्पा ने जिस स्फूर्ति के साथ अपनी सेना का जिस प्रकार से नेतृत्व किया उसके बाद लगभग उनका अगला कमांडर इन चीफ बनना तय हो गया। 15 जनवरी 1949 को के एम करिअप्पा को भारतीय सेना का प्रमुख चुना गया। इस प्रकार सेना का कमांडर इन चीफ बनने वाले वे पहले भारतीय हो गए।
पाकिस्तान को दिया था ऐसा जवाब
वर्ष 1965 में भारत पाकिस्तान के युद्ध से काफी पहले करिअप्पा सेवा-निवृत्त हो चुके थे। इस युद्ध में उनके बेटे केसी नंदा करिअप्पा भारतीय वायुसेना में फ्लाइट लेफ्टिनेंट थे। युद्ध के दौरान नंदा को पाकिस्तानी सैनिकों ने युद्ध बंदी बना लिया। उस वक़्त पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख जनरल अयूब खान पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे। अयूब को जब करिअप्पा के बेटे को युद्धबंदी बना लिए जाने के बारे में मालूम चला तो उन्होंने तुरंत करिअप्पा को फोन कर कहा यदि वह चाहें तो उनके बेटे को रिहा किया जा सकता है। करिअप्पा ने कहा- ‘अब वो मेरा बेटा नहीं, भारत मां का लाल है। उसके साथ बाकी कैदियों जैसा ही बर्ताव किया जाए आपने मुझे फोन किया, इसके लिए शुक्रिया, लेकिन मेरी आपसे गुजारिश है कि सभी युद्ध बंदियों को रिहा कर दीजिए या किसी को भी नहीं। 'उनके बेटे ने अपने पिता पर एक बायोग्राफी भी लिखी जिसका टाइटल था- ‘फील्ड मार्शल के एम करिअप्पा’।
विदेशों में भी दिया योगदान
साल 1953 में वह भारतीय सेना से रिटायर हो गए और उन्हें ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भारत का उच्चायुक्त नियुक्त किया गया। जहां उन्होंने 1956 तक अपनी सेवाएं दीं। एक वरिष्ठ अनुभवी अधिकारी के नाते उन्होंने कई देशों की सेनाओं के पुनर्गठन में भी सहायता की। उन्होंने चीन, जापान, अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और कई और यूरोपीय देशों की यात्रा की।
94 साल की उम्र में हुआ निधन
अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन ने उन्हें ‘आर्डर ऑफ़ द चीफ कमांडर ऑफ़ द लीजन ऑफ़ मेरिट’ से सम्मानित किया। देश को दी गयी उनकी सेवाओं के लिए भारत सरकार ने सन 1986 में उन्हें ‘फील्ड मार्शल’ का पद प्रदान किया। सेवानिवृत्ति के बाद के.एम.करिअप्पा कर्नाटक के कोडागु जिले के मदिकेरी में बस गए। वह प्रकृति प्रेमी थे। उन्होंने लोगों को पर्यावरण संरक्षण के बारे जागरूक किया। 94 साल की उम्र में करिअप्पा का निधन 15 मई 1993 को बेंगलुरू में हुआ।
इसलिए मनाया जाता है सेना दिवस
15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता मिलने के बाद सेना की कमान ब्रिटिश सेना अधिकारी सर फ्रांसिस बूचर के ही हाथों में थी। उस समय भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू सेना की कमान भारतीय हाथों में सौंपने को लेकर चिंतित थे। नेहरू को संदेह था कि इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी के लिए भारतीय सेना अधिकारी के पास अनुभव नहीं है। वह चाहते थे कि अभी कुछ साल सेना की कमान ब्रिटिश जनरल के हाथों में ही रहने दी जाए। ऐसे में करिअप्पा ने कहा 'सर अनुभव तो हमें देश का प्रधानमंत्री बन कर देश चलाने का भी नहीं था, लेकिन आप सफलतापूर्वक यह कार्य कर रहे हैं।' प्रधानमंत्री ने तब निर्णय किया और 15 जनवरी 1949 को भारतीय सेना की कमान ब्रिटिश जनरल सर फ्रांसिस बूचर से जनरल के.एम. करिअप्पा के हाथों में आ गई, तभी से इस दिन यानी 15 जनवरी को ‘सेना दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
युद्ध के शहीदों को श्रद्धांजलि
नयी दिल्ली में इंडिया गेट पर 'अमर जवान ज्योति' पर कुर्बान हुए भारतीय सेना के सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए 15 जनवरी को सेना दिवस के रुप में मनाने का फैसला किया गया था। श्रद्धांजलि देने के बाद भारतीय सेना में नयी तकनीक और उपलब्धियों को दर्शाने के लिए मिलिट्री प्रदर्शनियों सहित एक उत्कृष्ट परेड होती है। इस महान अवसर पर बहादुरी पुरस्कार और सेना मेडल दिए जाते हैं। भारतीय सेना के जवानों (भारतीय सेना बैंड्स) द्वारा सेना दिवस उत्सव के दौरान सेना दिवस परेड प्रस्तुत की जाती है।
उत्कृष्ट कार्यों के लिए उठ रही है भारत रत्न की देने की मांग
भारतीय सेना के पहले कमांडर इन चीफ फील्ड मार्शल के. एम. करिअप्पा को भारत रत्न देने की मांग कई बार उठी है। वर्तमान आर्मी चीफ जनरल बिपिन रावत ने भी पिछले दिनों कहा, वक्त आ गया है कि इस अवॉर्ड के लिए फील्ड मार्शल करियप्पा का नाम लिया जाए। यदि ये अवॉर्ड बाकी लोगों को दिया जा सकता है, तो ऐसा कोई कारण नहीं है कि ये करिअप्पा को न मिले, वह इसके हकदार हैं। हम जल्द ही इस मुद्दे पर अपनी बात रखेंगे।
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