महार रेजीमेंट भारतीय सेना की एक इन्फैन्ट्री रेजीमेंट है। हालांकि, मूल रूप में इसे महाराष्ट्र के महार सैनिकों को मिलाकर बनाने का विचार था। यह रेजीमेंट मध्यम मशीनगनों के साथ क्षेत्ररक्षण करने की एक विशेष भूमिका निभाती है आइए जानते हैं महार रेजीमेंट से जुड़ी खास बातें :
महार रेजीमेंट का इतिहास वीरता की कहानियों से भरा हुआ है। सबसे पहले महारों को मराठा राजा शिवाजी ने स्काउट्स और उनकी सेना में फोर्ट गार्ड के रूप में भर्ती किया था। उन्हें ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी बड़ी संख्या में भर्ती किया गया था ताकि पेशवाओं के खिलाफ युद्ध में भेज सकें। ये सैनिक कंपनी की बॉम्बे नेटिव आर्मी का एक छठवां हिस्सा थे।
महार रेजीमेंट ने 'बैटल ऑफ कोरेगांव' में बड़ी सफलता हासिल की थी। सन 1818 में हुए इस युद्ध को अंग्रेजों ने महारों के बल पर ही जीता था। भेदभाव से पीड़ित अछूतों की इस रेजीमेंट की युद्ध के प्रति दृढ़ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि महार रेजिमेंट के ज्यादातर सिपाही बिना पेट भर खाने और पानी के बिना 27 किलोमीटर पैदल चलकर युद्ध स्थल तक पहुंचे और 500 लड़ाकों की छोटी सी सेना ने हजारों सैनिकों के साथ 12 घंटे तक वीरतापूर्वक लड़ाई लड़ी।
कुछ समय बाद सन 1857 के विद्रोह के मद्देनजर, अंग्रेजों ने अपनी भर्ती-नीतियों में बदलाव किया और सन् 1893 में महार भर्ती पर रोक लगा दी। सन् 1892 से महार सैनिक साथ ही मंगॉक सैनिक अब बॉम्बे आर्मी में शामिल नहीं हो सकते थे क्योंकि उन्हें अछूत माना जाता था। उम्मीद के मुताबिक एक दशक से भी ज्यादा की वफादार सेवा के बाद अंग्रेजों ने महारों को धोखा दिया था।
पहले विश्वयुद्ध में हजारों महारों को इन्डियन रॉयल आर्मी में फिर से भर्ती किया गया था। उनके अधिकारियों ने महारों की एक नियमित बटालियन के लिए सरकार से मांग की जिसे 1917 में मान लिया गया। इसका एक अन्य रेजीमेंट के साथ विलय किया गया। दूसरे व तीसरे विश्व युद्ध के बीच लगातार 111- बटालियन महार रेजीमेंट के रूप में योगदान देते हुए स्वयं के लिए एक रेजीमेंट की मांग जारी रखी। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप 1941 में 'महार रेजीमेंट' की स्थापना हुई। 1 अक्टूबर 1941 को नानावाडी (बेलगाम) में महार रेजीमेंट की पहली बटालियन बनाई गई।
महार रेजीमेंट ने देश को दो सेना प्रमुख दिए हैं: पहले जनरल के वी कृष्ण राव(सेवानिवृत्त) और जनरल के सुंदरजी (सेवानिवृत्त)। इस रेजीमेंट का ध्येय वाक्य 'यश सिद्धि' है और ये रेजिमेंट 'बोलो हिंदुस्तान की जय' का नारा लगाते हुए युद्ध के मैदान में आगे बढती है। रेजीमेंट का प्रतीक चिन्ह- दो क्रॉस मीडियम मशीनगन है। जो एक त्रिकोणीय स्तम्भ पर टिकी हैं।
इस युद्ध में मारे गए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक चौकोर मीनार बनाई गई है। जिसे 'कोरेगांव स्तंभ' के नाम से जाना जाता है। यह महार रेजीमेंट के साहस का प्रतीक है। इस मीनार पर उन शहीदों के नाम खुदे हुए हैं जो इस लड़ाई में मारे गए थे।
रेजीमेंट को अभी तक ढेरों सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। इनमें से 1 परमवीर चक्र, 4 महावीर चक्र, 29 वीर चक्र,1 कीर्ति चक्र,12 शौर्य चक्र, 22 विशिष्ट सेवा मैडल और 63 सेना मैडल शामिल हैं।
महारों के बल पर ही पेशवाओं से जीत पाए थे अंग्रेज
महार रेजीमेंट का इतिहास वीरता की कहानियों से भरा हुआ है। सबसे पहले महारों को मराठा राजा शिवाजी ने स्काउट्स और उनकी सेना में फोर्ट गार्ड के रूप में भर्ती किया था। उन्हें ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी बड़ी संख्या में भर्ती किया गया था ताकि पेशवाओं के खिलाफ युद्ध में भेज सकें। ये सैनिक कंपनी की बॉम्बे नेटिव आर्मी का एक छठवां हिस्सा थे।
वीरता की एतिहासिक मिसाल है 'बैटल ऑफ कोरेगांव'
महार रेजीमेंट ने 'बैटल ऑफ कोरेगांव' में बड़ी सफलता हासिल की थी। सन 1818 में हुए इस युद्ध को अंग्रेजों ने महारों के बल पर ही जीता था। भेदभाव से पीड़ित अछूतों की इस रेजीमेंट की युद्ध के प्रति दृढ़ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि महार रेजिमेंट के ज्यादातर सिपाही बिना पेट भर खाने और पानी के बिना 27 किलोमीटर पैदल चलकर युद्ध स्थल तक पहुंचे और 500 लड़ाकों की छोटी सी सेना ने हजारों सैनिकों के साथ 12 घंटे तक वीरतापूर्वक लड़ाई लड़ी।
वफादारी के बावजूद अंग्रेजों ने दिया धोखा
कुछ समय बाद सन 1857 के विद्रोह के मद्देनजर, अंग्रेजों ने अपनी भर्ती-नीतियों में बदलाव किया और सन् 1893 में महार भर्ती पर रोक लगा दी। सन् 1892 से महार सैनिक साथ ही मंगॉक सैनिक अब बॉम्बे आर्मी में शामिल नहीं हो सकते थे क्योंकि उन्हें अछूत माना जाता था। उम्मीद के मुताबिक एक दशक से भी ज्यादा की वफादार सेवा के बाद अंग्रेजों ने महारों को धोखा दिया था।
1 अक्टूबर, 1941 को बनी महार रेजीमेंट
पहले विश्वयुद्ध में हजारों महारों को इन्डियन रॉयल आर्मी में फिर से भर्ती किया गया था। उनके अधिकारियों ने महारों की एक नियमित बटालियन के लिए सरकार से मांग की जिसे 1917 में मान लिया गया। इसका एक अन्य रेजीमेंट के साथ विलय किया गया। दूसरे व तीसरे विश्व युद्ध के बीच लगातार 111- बटालियन महार रेजीमेंट के रूप में योगदान देते हुए स्वयं के लिए एक रेजीमेंट की मांग जारी रखी। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप 1941 में 'महार रेजीमेंट' की स्थापना हुई। 1 अक्टूबर 1941 को नानावाडी (बेलगाम) में महार रेजीमेंट की पहली बटालियन बनाई गई।
रेजीमेंट ने देश को दिए हैं दो सेना प्रमुख
महार रेजीमेंट ने देश को दो सेना प्रमुख दिए हैं: पहले जनरल के वी कृष्ण राव(सेवानिवृत्त) और जनरल के सुंदरजी (सेवानिवृत्त)। इस रेजीमेंट का ध्येय वाक्य 'यश सिद्धि' है और ये रेजिमेंट 'बोलो हिंदुस्तान की जय' का नारा लगाते हुए युद्ध के मैदान में आगे बढती है। रेजीमेंट का प्रतीक चिन्ह- दो क्रॉस मीडियम मशीनगन है। जो एक त्रिकोणीय स्तम्भ पर टिकी हैं।
महारों के पराक्रम का परिचय देता है 'कोरेगांव स्तंभ'
इस युद्ध में मारे गए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक चौकोर मीनार बनाई गई है। जिसे 'कोरेगांव स्तंभ' के नाम से जाना जाता है। यह महार रेजीमेंट के साहस का प्रतीक है। इस मीनार पर उन शहीदों के नाम खुदे हुए हैं जो इस लड़ाई में मारे गए थे।
मिले हैं ढेरों वीरता पुरस्कार
रेजीमेंट को अभी तक ढेरों सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। इनमें से 1 परमवीर चक्र, 4 महावीर चक्र, 29 वीर चक्र,1 कीर्ति चक्र,12 शौर्य चक्र, 22 विशिष्ट सेवा मैडल और 63 सेना मैडल शामिल हैं।
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