कभी दर्द दबाया कभी अश्क उमड़ते चले गए
कई-कई गुबार बारहा दिल में घुमड़ते चले गए
हुस्न-ओ-अदा-ओ-इज्जत पे कुबार्नियों का पाठ
इस ख़ैरात-ए-विरासत में पांव गड़ते चले गए
कोई नयी बात नहीं, है ये फितरत लोगों की पुरानी
वो इंसानियत के नाम पे जज्बात उधड़ते चले गए
थी बात अक्ल की उनके लिए, लाजिम थी सियासत
हम दिल से निकली हर बात पे लड़ते चले गए
सुबह-ओ-शाम का रखा जाए किस तरह हिसाब
दिन कम पड़ा तो रात पे भी झगड़ते चले गए
कभी कलम मेहरबान थी, कभी काबिल जुबान थी
हम उम्र भर हालात से बस यूं लड़ते चले गए
कई-कई गुबार बारहा दिल में घुमड़ते चले गए
हुस्न-ओ-अदा-ओ-इज्जत पे कुबार्नियों का पाठ
इस ख़ैरात-ए-विरासत में पांव गड़ते चले गए
कोई नयी बात नहीं, है ये फितरत लोगों की पुरानी
वो इंसानियत के नाम पे जज्बात उधड़ते चले गए
थी बात अक्ल की उनके लिए, लाजिम थी सियासत
हम दिल से निकली हर बात पे लड़ते चले गए
सुबह-ओ-शाम का रखा जाए किस तरह हिसाब
दिन कम पड़ा तो रात पे भी झगड़ते चले गए
कभी कलम मेहरबान थी, कभी काबिल जुबान थी
हम उम्र भर हालात से बस यूं लड़ते चले गए
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