मेरठ से 24 किमी की दूरी पर स्थित सरधना का विश्वप्रसिद्ध गिरजाघर, जहां बेनजीर खूबसूरती की मलिका बेगम समरू की रूह बसती है। यह गिरजाघर कारीगरी का अदभुत नमूना तो है ही साथ ही अपने भीतर संजोए है एक ऐसी दिलेर महिला की कहानी जो तवायफ से प्रेमिका बनी, पत्नी बनी और फिर विधवा हुई तो एक सल्तनत की जागीरदार बन गई।
यहां तक कि अपनी जीवन के अंतिम दिनों में अपना मजहब बदलकर ईसाई बन गई। यही नहीं, उनकी बहादुरी के किस्से आज भी दोहराए जाते हैं। 48 साल तक सरधना सल्तनत पर अपनी हुकूमत चलाने वाली बेगम समरु की दिलचस्प कहानी आइए जानते हैं: -
बेगम समरू की जिंदगी कई पड़ाव और कई पहलुओं से गुजरी। एक किराए के सैनिक से उनकी मुलाकात उन्हें बुलंदियों तक पहुंचाएगी, ये शायद ही उन्होंने सोचा होगा।
सैनिक सोम्ब्रे ने न सिर्फ उन्हें शोहरत दिलाई, बल्कि उन्हें एक सल्तनत की मलिका भी बना दिया। उनके नाम को इतिहास में अमर कर दिया। यही कारण है कि अपने पति की याद में बेगम समरू ने इस खूबसूरत चर्च का निर्माण कराया।
यहां तक कि अपनी जीवन के अंतिम दिनों में अपना मजहब बदलकर ईसाई बन गई। यही नहीं, उनकी बहादुरी के किस्से आज भी दोहराए जाते हैं। 48 साल तक सरधना सल्तनत पर अपनी हुकूमत चलाने वाली बेगम समरु की दिलचस्प कहानी आइए जानते हैं: -
बेगम समरू की जिंदगी कई पड़ाव और कई पहलुओं से गुजरी। एक किराए के सैनिक से उनकी मुलाकात उन्हें बुलंदियों तक पहुंचाएगी, ये शायद ही उन्होंने सोचा होगा।
सैनिक सोम्ब्रे ने न सिर्फ उन्हें शोहरत दिलाई, बल्कि उन्हें एक सल्तनत की मलिका भी बना दिया। उनके नाम को इतिहास में अमर कर दिया। यही कारण है कि अपने पति की याद में बेगम समरू ने इस खूबसूरत चर्च का निर्माण कराया।
ये कहानी शुरू होती है दिल्ली के चावड़ी बाजार से जो सोलह-सत्रह के दशक में तवायफों का मोहल्ला हुआ करता था। 1767 में किराए के सैनिक अक्सर मनोरंजन के लिए इस जगह आते थे।
इसी दौरान फ्रांस का एक किराए का सैनिक वॉल्टर रेनहार्ड सोम्ब्रे भी लड़ाई के बाद दिल्ली में रुका हुआ था। सोम्ब्रे मुगलों की ओर से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहा था। उसे 'पटना का कसाई' भी कहा जाता है।
एक दिन वॉल्टर सौम्ब्रे भी चावड़ी बाजार के रेड लाइट एरिया में एक कोठे पर पहुंचा। जहां तबले की थाप पर थिरकती नाजुक कद-काठी की एक खबूसरत लड़की पर उसकी नजर ऐसे बंधी की वॉल्टर हमेशा के लिए उसी का हो गया।
14 साल और साढ़े चार फुट की उस खूबसरत नैन नक्श वाली लड़की का नाम था 'फरजाना'। यहीं से फरजाना की जिंदगी बदलनी शुरू हो गई।
फरजाना भी वॉल्टर के प्यार में पड़ चुकी थी। जहां भी वॉल्टर जाता फरजाना साथ जाती। वह सोम्ब्रे के पार्टनर के रूप में रहने लगीं। लखनऊ, रुहेलखंड, भरतपुर और आगरा सहित वह हर जगह सोम्ब्रे के साथ गई और लड़ाई में हिस्सेदारी करतीं।
इसी दौरान लोग उन्हें सोम्ब्रे के अपभ्रंश के रूप में समरू बुलाने लगे। इसके बाद मुगल शासक शाह आलम द्वीतीय ने वॉल्टर को यूपी के सरधना का जागीरदार बना दिया। शाह आलम द्वितीय ने उन्हें तोहफे में दिल्ली में एक महल बनवाकर दिया था। हालांकि आज यहां बैंक है लेकिन पुरानी इमारत आज भी इतिहास की गवाह है।
वॉल्टर के साथ फरजाना मेरठ के सरधना आ गईं और अब वह बेगम समरू हो चुकी थीं। लेकिन 1778 में वॉल्टर की अचानक मौत हो गई।
इसी दौरान शाह आलम द्वितीय और तकरीबन चार हजार सैनिकों की रजामंदी के बाद बेगम समरू को सरधना का जागीरदार बना दिया गया।
पति की मौत के तीन साल बाद फरजाना ने ईसाई धर्म कुबूल कर लिया और जोहाना नोबिलिस सोम्ब्रे बन गईं। 1822 में बेगम समरु ने अपने फ़्रांसीसी पति की याद में सरधना में विशाल कैथोलिक गिरिजाघर का निर्माण कराया था।
इटली के कलाकारों में उस वक्त 2700 सोने की मोहर लेकर पत्थरों पर इन जीवंत मूर्तियों को उकेरा। एक जमाने में सरधना स्टेट का इलाका अलीगढ़ से लेकर सहारनपुर तक हुआ करता था।
सरधना स्टेट भले ही अपने वैभवशाली इतिहास को संजोए हो लेकिन आज इसकी हालत ख़राब है। कभी मेरठ ज़िला मुख्यालय सरधना स्टेट का परगना हुआ करता था। आज यहां पहुंचने के लिए घंटों जाम से जूझना पड़ता है। इसे पर्यटक स्थल के रूप में डेवलप किया जा सकता था लेकिन हुक्मरानों की अनदेखी ने इसके इतिहास पर काली स्याही पोत दी।
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