हाल ही में भारतीय सेना के तकरीबन 100 जवानों ने इतिहास की उस घटना को जिंदा किया जिसके बारे में शायद ही आप जानते हों? दरअसल, इन जवानों ने 'चिंडित सैनिकों' के उस अभियान को दोहराया जब 75 साल पहले तीन हजार भारतीय सैनिकों ने खतरनाक जंगलों और पहाड़ी इलाकों में गुरिल्ला ट्रेनिंग ली थी। आइये जानते हैं कैसी थी यह ख़ास ट्रेनिंग और आखिर कौन थे 'चिंडित सैनिक' :-
500 किमी लंबा अभियान
भारतीय सेना ने पिछले माह 500 किमी लंबे चिंडित अभियान (chindits opration)का सफल समापन किया। अभियान दल ने अपना सफर विंध्य पर्वतश्रेणी के पश्चिम में बेतवा नदी और पूर्व में केन नदी से होते हुए दक्षिण में नर्मदा नदी के किनारे इस अभियान का सफलतापूर्वक संपन्न किया। 21 दिन तक चले इस अभियान को चार चरणों में पूरा किया गया।
30 किलो वजन के साथ पैदल ही पूरा करना था अभियान
इस अभियान में बीस रैंकों के 100 सैन्यकर्मियों ने पांच दिन के एक चरण में लगभग 125 किमी की दूरी तय की। प्रत्येक सैनिक को अपनी पीठ पर 25 से 30 किलो वजन लेकर चलना था। जहां अभियान के अंतिम चरण में सैनिकों को रानी दुर्गावती एवं 'नौरादेही अभयारण' विन्ध्य पर्वत की 752 मीटर की ऊंची चोटी से भी गुजरना था।
तारों को देखकर लगाया दिशा का अंदाजा
इस सफर की ख़ास बात यह थी कि अभियान के दौरान न तो सैनिकों के पास जीपीएस की सुविधा थी और न ही आधुनिक कम्युनिकेशन सिस्टम। अभियान के दौरान सैनिकों को केवल कम्पास, नक़्शे के सहारे और तारों की दिशा के अनुकूल आगे बढ़ना था और प्रतिकूल स्थितियों का मुकाबला करना था। यही नहीं अभियान के दौरान लोगों को चिकित्सा सुविधाएं भी सैनिकों द्वारा मुहैया कराईं गईं। जिसमें आठ मेडिकल कैम्प के अंतर्गत सुदूर इलाकों के 1020 लोगों को मुफ्त चिकित्सा दी गई।
विपरीत परिस्थिति में रहने का अभियान
सेना के मुताबिक इस अभियान का उद्देश्य 'चिंडित सैनिकों' के प्रशिक्षण अनुभव के साथ-साथ उनके अदम्य साहस को वर्तमान सैन्य पीढ़ी के लिए प्रेरणादायी बनाना था। देश के विभिन्न हिस्सों से आये सेना की विभिन्न पलटनों के सैनिकों के बीच यह अभियान एक प्रेरणादायी भावना के साथ चिंडित के आदर्श वाक्य – 'द बोल्डेस्ट मेजर्स आर द सेफेस्ट' के साथ इस अभियान को पूरा किया गया।
सबसे पुरानी स्पेशल फोर्स है 'चिंडित फोर्स'
दरअसल, 75 साल पहले जब दुनियाभर के देश दूसरे विश्व युद्ध में अपनी-अपनी सेनाएं उतार चुके थे, उस दौरान भारतीय सैनिक ब्रिटिश फौज की तरफ से मैदान-ए-जंग में दुश्मनों से लोहा ले रहे थे। दरअसल, अंग्रेज अफसरों ने बर्मा (अब म्यांमार) में जापानी सेना को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारतीय सेना की गोरखा टुकडियों के सैनिकों को मिलाकर एक विशेष 'गुरिल्ला सेना' तैयार की थी। जिसे 'चिंडिट आर्मी' नाम दिया गया। चिंडित फोर्स की स्थापना 1943-1944 में जनरल औरडे चाल्र्स विंगेट ने की थी।
किसी भी हाल में जीवित रहने के लिए प्रशिक्षित किये गए थे 'चिंडित'
युद्ध में शामिल करने से पहले चिंडित सेना को सेन्ट्रल इंडिया के मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के घने जंगलों में गहन प्रशिक्षण दिया गया। दुर्गम जंगलों, ऊंचे पहाड़ों और नदियों वाले क्षेत्र में गहन प्रशिक्षण लेने वाली इस चिंडित सेना ने अपने पराक्रम और अभियानों के दम पर ही जापानी सेना का मनोबल तोड़ा था। गुरिल्ला सेना के अभियानों ने ही जापानी सेना की हार में निर्णायक भूमिका निभायी।
बिना राशन के गुजार सकते थे कई दिन
चिंडित अभियान के तहत हालांकि लगातार 21 दिन तक जंगल में रहे सैनिकों के पास समय-समय पर रसद पहुंचाई जाती रही लेकिन पुरानी 'चिंडित पलटन' को केवल 7 दिन का राशन दिया गया था। पर राशन खत्म होने पर वे शिकार करके पेट भर सकते थे। जंगलों, पहाड़ों और नदियों के बीच मिली खास ट्रेनिंग की बदौलत चिंडित इतने सक्षम और सबल हो गए थे कि यहां इन्होनें विषम परिस्थितियों में जिन्दा रहने की हर तरकीब सीख ली। यही वजह थी कि उन्होंने बर्मा में जापानियों के पांव उखाड़ दिए। जापानी सेना के कई कम्युनिकेशन सेंटर तबाह कर डाले। चिंडित अपने ज्यादातर हमलों को रात के वक्त अंजाम देते थे।
'4 गोरखा राइफल्स पलटन' थी इस फ़ोर्स का हिस्सा
यही वजह थी कि इस बार भी सैन्य अभियान में भारतीय जवानों को रात में जंगल के बीच और सुविधाओं के अभाव में खुद को सुरक्षित रखने की यह खास ट्रेनिंग दी गई। यहां आपको यह भी बता दें कि वर्तमान में भारतीय सेना की '4 गोरखा राइफल्स पलटन' इस 'चिंडित फोर्स' का हिस्सा थी। इनकी वर्दी में आज भी चिंडित का प्रतीक चिन्ह है– यह शेर की मुहं की तरह ड्रेगन बना हुआ है जो बौद्ध पौराणिक कथाओं के अनुसार पैगोडा का संरक्षक है।
फोटो साभार :गूगल
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