मेरे मन में कल ख्याल आया कि मैं जब पहली बार मेरठ आई थी, तो सोचा था यहां बहुत सी ख्वाहिशों, सपनों और कल्पनाओं को पंख लगाने हैं। लेकिन मुझे ये शहर कभी रास नहीं आया। हो सकता है इसे मैं पसंद नहीं या मुझे यहां रहने का ढंग नहीं आता। हर बार इस शहर से दूर हो जाने की योजना बनती है, मगर मुकाम तक नहीं पहुंचती। पता नहीं क्यों, ये शहर मुझे कहीं और क्यों नहीं जाने देता, हर बार मुझे यहां किसी न किसी बहाने कैद किए रहता है। मैं ऊब गई हूं इस शहर से अलविदा कहना चाहती हूं इसे। इसी ऊब को मैनें कुछ यूं निकाला है धूप धुंधलाई हुई और जिंदगी कुम्हलाई हुई सी,
तपती धूप में जल जाते थे पांव,
सड़कों पर दौड़ता था सन्नाटा कुछ बुदबुदाता सा,
कुछ जिस्म रेंगते थे, कुछ रूहें ठिठुरती थीं धूप की चुभन से,
मेरी परछांई मुझी में समा जाती थी हर कदम
आंखों में ख्वाब समेटे चली जा रही थी मैं
हाथों में जिंदगी थामे,
हा,ं जिंदगी ही तो थी
कुछ ओढ़न, पैरहन और खाने का सामान,
इस शहर में कोई भी तो नहीं था मेरा
अकेले घूमना था मुझे सरे शहर तेरा।
बरसती थी धूप उन गलियों में फिर भी था अंधेरा
खुले थे द्वार,
मगर खाली था बसेरा।
मैंने झांका तो वक्त के कुछ बासी लम्हों को पाया,
आवाज दी मगर कोई आहट, साया कोई भी तो नहीं आया।
कितना अकेला था यह शहर,
हर मोड़ पर रूक के पुकारा कि कोई सुनेगा आहट,
कोई रोकेगा कहेगा कि कुछ देर यहां ठहर।
फिर लगा कहीं ऐसा तो नहीं,
हो ये लुटेरों का शहर।
सोचा ही था कि आके एक बच्चे ने पकड़ लिया दामन
बोला अजनबी हो.. आओ तुम्हें इस शहर से मिलवाता हूं
उस आवाज में कसक थी मासूमियत और सच्चाई थी
हाथ पकड़े हुए बढ़ चला था खामोशियों की ओर
मेरे सवालों को मिला भी न था जवाब कि उसने इशारा किया
यहां रहती है मुफ़लिसी,लाचारी, बीमारी, हयात, यहीं मैं रहता हूं।
ये कर्जदारों, ब्याजखोरों, मनचलों और लुटेरों को मोहल्ला है।
इस कोने पर रहती है थोड़ी ईमानदारी सज्जनता और होशियारी
पर्दे में ही रहा करती है अक्सर
उस तरफ कभी न जाना वहां मुर्दे सोएं हैं।
साया था या फरिश्ता, इतना कहकर गुम हो गया था कहीं।
उसके जाते ही मेरे कानों में गूंजा भयंकर स्वर
घने शोर की आवाज सुनी थी अचानक मैनें
या किसी ख्वाब से जागी थी यकायक मैं।
नहीं, अचानक नींद से जागा था ये शहर
मैनें देखा, मुझे हिरासत में ले चुकीं थी सैकड़ों आवाजें।
इस जुर्म की गिरफ्त में थी मैं कि मैंनें देखा था
एक ख्वाब।
शोर के शहर में आज तक बंदी हूं वहां मैं जहां
न अंधेरा है, न उजाला है, न दिन न रात,
थकते-टूटते जिस्मों में जब दर्द को नींद आने लगती है
ज़र्द चेहरा लिए एक चांद फ़लक पर आता है हर रोज,
कहता है मुश्किल है, मगर
कैद-ए-जां से अच्छा है आसमानों को शहर
मुझे यकीं है मिलेगी एक दिन मुझको रिहाई जरूर
होंगे आजाद सारे ख्वाब फ़लक के चांद की तरह
जिंदगी की नव्ज़ पर पड़े बेड़ियों के निशान
वक्त तो मिटा न सकेगा मगर,
इसी बहाने ही सही रहेगा तेरा याद शहर।
तपती धूप में जल जाते थे पांव,
सड़कों पर दौड़ता था सन्नाटा कुछ बुदबुदाता सा,
कुछ जिस्म रेंगते थे, कुछ रूहें ठिठुरती थीं धूप की चुभन से,
मेरी परछांई मुझी में समा जाती थी हर कदम
आंखों में ख्वाब समेटे चली जा रही थी मैं
हाथों में जिंदगी थामे,
हा,ं जिंदगी ही तो थी
कुछ ओढ़न, पैरहन और खाने का सामान,
इस शहर में कोई भी तो नहीं था मेरा
अकेले घूमना था मुझे सरे शहर तेरा।
बरसती थी धूप उन गलियों में फिर भी था अंधेरा
खुले थे द्वार,
मगर खाली था बसेरा।
मैंने झांका तो वक्त के कुछ बासी लम्हों को पाया,
आवाज दी मगर कोई आहट, साया कोई भी तो नहीं आया।
कितना अकेला था यह शहर,
हर मोड़ पर रूक के पुकारा कि कोई सुनेगा आहट,
कोई रोकेगा कहेगा कि कुछ देर यहां ठहर।
फिर लगा कहीं ऐसा तो नहीं,
हो ये लुटेरों का शहर।
सोचा ही था कि आके एक बच्चे ने पकड़ लिया दामन
बोला अजनबी हो.. आओ तुम्हें इस शहर से मिलवाता हूं
उस आवाज में कसक थी मासूमियत और सच्चाई थी
हाथ पकड़े हुए बढ़ चला था खामोशियों की ओर
मेरे सवालों को मिला भी न था जवाब कि उसने इशारा किया
यहां रहती है मुफ़लिसी,लाचारी, बीमारी, हयात, यहीं मैं रहता हूं।
ये कर्जदारों, ब्याजखोरों, मनचलों और लुटेरों को मोहल्ला है।
इस कोने पर रहती है थोड़ी ईमानदारी सज्जनता और होशियारी
पर्दे में ही रहा करती है अक्सर
उस तरफ कभी न जाना वहां मुर्दे सोएं हैं।
साया था या फरिश्ता, इतना कहकर गुम हो गया था कहीं।
उसके जाते ही मेरे कानों में गूंजा भयंकर स्वर
घने शोर की आवाज सुनी थी अचानक मैनें
या किसी ख्वाब से जागी थी यकायक मैं।
नहीं, अचानक नींद से जागा था ये शहर
मैनें देखा, मुझे हिरासत में ले चुकीं थी सैकड़ों आवाजें।
इस जुर्म की गिरफ्त में थी मैं कि मैंनें देखा था
एक ख्वाब।
शोर के शहर में आज तक बंदी हूं वहां मैं जहां
न अंधेरा है, न उजाला है, न दिन न रात,
थकते-टूटते जिस्मों में जब दर्द को नींद आने लगती है
ज़र्द चेहरा लिए एक चांद फ़लक पर आता है हर रोज,
कहता है मुश्किल है, मगर
कैद-ए-जां से अच्छा है आसमानों को शहर
मुझे यकीं है मिलेगी एक दिन मुझको रिहाई जरूर
होंगे आजाद सारे ख्वाब फ़लक के चांद की तरह
जिंदगी की नव्ज़ पर पड़े बेड़ियों के निशान
वक्त तो मिटा न सकेगा मगर,
इसी बहाने ही सही रहेगा तेरा याद शहर।
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