वो कामयाब क्या हुए, इतरा रहे हैं यूं
जैसे कि उनके पांव के नीचे जमीं नहीं।
परवाने जल के मर गए, शमा न बुझ सकी
बदले हजार दौर, मगर रोशनी रही।
हमने दिए जलाए थे इक इश्तियाक से
जल जाएगा शहर ही ये सोचा न था कभी।
फुरसत के लम्हे मांग के मसरूफियत से तुम,
आओ कि बेकरारी की आदत नहीं रही।
इजहार-ए-इश्क तुमको खफा कर न दे कहीं
ख्वाहिश ये आज भी मेरी दिल में ही रह गयी।
इजहार-ए-इश्क तुमको खफा कर न दे कहीं
ReplyDeleteख्वाहिश ये आज भी मेरी दिल में ही रह गयी..
ऐसा ही होता है अक्सर ... पर भलाई कह देने में ही है ...
परवाने जल के मर गए, शमा न बुझ सकी
ReplyDeleteबदले हजार दौर, मगर रोशनी रही।
बहुत सुन्दर ग़ज़ल