एक सुरीला कलाम सुनाती है खामोशी,
सन्नाटों में जब गुनगुनाती है खामोशी।
लफ्ज नाकाम रहे कहने में जिसे मुद्दतों,
वो बात कह के चली जाती है मुझसे खामोशी।
सांझा करने लगी हूं राज-ए-दिल इसी से अब,।
गुफ्तगू करने लगी है मुझसे खामोशी।
हो गई हूं और भी करीब अपने ,
मुझको मेरी पहचान सिखाने लगी है खामोशी।
ये शोर दे सका न मुझे कुछ अश्क के सिवा
बस एक मासूमियत से पेश आती है खामोशी।
-डिम्पल सिरोही
बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है
ReplyDeleteआग्रह है-- हमारे ब्लॉग पर भी पधारे
शब्दों की मुस्कुराहट पर ...पुरानी डायरी के पन्ने : )