Saturday, April 6, 2013

चंद अशआर......


बेटी ने छोड़ा जब मां का आंगन तो एहसास हुआ,
 फूल कोई भी हो शाख का नहीं होता।
 कि निभाने हंै कई किरदार इस नाटक के अभी
 इक शख्स का सौ रूपों में ढलना आसां नहीं होता।
हंसने भी नहीं देता रोने भी नहीं देता
ये दिल हमें किसी का भी होने नहीं देता
 तुम मांगते हो मुझ से मेरी ख्वाहिश
 बच्चा तो कभी अपने खिलौने नहीं देता।
 होली तो चली गई मगर कुछ पंक्तियां ने एक पिता की लाचारी को कुछ यूं कुरेदा.......

 उस नादां पर छाई थी, होली की खुमारी
 कल पप्पू मुझसे मांग रहा था पीतल की पिचकारी
 लाने को तो ला दूंगा मैं, मगर कल खाने को मांगेगा
 तो क्या दूंगा मैं।
 सूखे फूल, कागज की नाव, कुछ तितलियों के पर
 लौटा गया  कहकर कि अमानत किसी की रखता नहीं हूं मैं,
 कोई बतलाए कि बचपन की मोहब्बत  में सियासत नहीं होती।

3 comments:

  1. बहुत अच्छा। तस्वीरें नहीं पंक्तियां। पहले अंश को छोड़कर बाकी तीनों का अंदाज और ख़याल उम्दा भी है और एक दूसरे से अलग भी। चारों में से दूसरा कतआ और त्रिवेणी तो बहुत अच्छे हैं। ईमानदारी की बात यह कि इन तीनों में सुधार की गुंजाइश नज़र नहीं आई, सिवाय इसके कि त्रिवेणी में 'महोब्बत' की जगह 'मोहब्बत'' कर दो। पहला अंश बहर में नहीं है, ख़याल अच्छा है पर शैर बन नहीं पाया। दोबारा कोशिश करना। Keep it up.

    ReplyDelete
  2. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete