Wednesday, March 4, 2020

बहुत खलता है ......., एक खूबसूरत ​रिवायत का यूं मर जाना...!


एक समय था जब होली के त्योहार में प्राकृतिक रंगों के साथ एकता, भाईचारे और सौहार्द के रंग भी मिले होते थे। आज न ही वो आपसी सौहार्द है और न ही त्योहारों में वो खूबसूरती। न जाने कितनें ही त्योहारों की पुरानी परंपराएं विलुप्त होती जा रहीं हैं, मैनें भी अपने सामने होली की एक खूबसूरत परंपरा को इसी तरह मरते देखा है.......।
photo: google

ये 90 के दशक की बात है। मैं और मेरी बहन दोनों के लिए हर बार होली आने से चार दिन पहले ही मां नए कपड़े खरीदकर ले आती थीं। हम जब तक उन्हें छूकर नहीं देख लेते तब तक हमें यकीन नहीं होता ये सोचकर कि कहीं मां होली वाले दिन हमें पुराने कपड़े न पहना दें।
नई ड्रेस के बाद मां का दूसरा काम था लकड़ी की उस कश्मीरी टोकरी को निकालना, जिसे वह अपनी अलमारी में सहेज कर रखती थीं। उधर, इस टोकरी को फूलों से भरने की हमारी जद्दोजेहद एक दिन पहले ही शुरू हो जाती थी। इस दिन की खुशी अलग ही होती थी, क्योंकि इस दिन पापा के साथ अपने खेतों पर जाने का मौका जो मिलता था।
जितनी देर पापा खेत पर होते, तब तक दूर तलक फैली सरसों के न जानें कितने खूबसूरत पीले फूलों को बटोर लिया जाता। लेकिन सिर्फ पीले से काम कहां चलता, बालमन को तो नीला, गुलाबी, हरा सभी रंग के फूलों की ललक रहती। इसके लिए सड़कों पर खड़े पलाश, कनेर, अनार और कचनार जैसे पेड़ काफी थे। चिल्ला- चिल्लाकर पापा से ट्रैक्टर रोकने को कहते और ..धम्म से कूदकर सुर्ख फूलों को चुन लाते। हां, इस पूरी प्रक्रिया में पापा को अन्य दिनों की अपेक्षा लेट हो जाता था। जाहिर है बच्चों की जिद के आगे आखिर हर पिता को झुकना ही पड़ता है।
घर पहुंचने तक के रास्ते में यदि किसी के घर के बाहर गुलाब खिले दिख गए तो कहना ही क्या? फिर से ट्रैक्टर रुकवाया और झट से दो-चार सुर्ख और गुलाबी गुलाब झपट लिए। कई बार इस मुश्किल काम में कांटों ने नन्हीं उंगलियों को चीरा भी। सब चलता था, क्योंकि एक हनक थी कि होली की बच्चा पार्टी में हमारे पास सबसे ज्यादा और खबूसूरत फ्लावर्स होने चाहिए। अब रात भर फूलों को सही सलामत रखने की जिम्मेदारी मां की होती।
सुबह होते ही फूलों को बिचूरकर टोकरियों में रखने की तैयारी शुरू हो जाती। दोपहर को तीन बजते ही मां हम दोनों को नई ड्रेस पहनाकर तैयार कर देती और फूलों की टोकरी हाथों में थमा देती। साथ ही ये भी समझा देती कि शैतानी में चोट न मार लेना! पूरे गांव में घूमकर पांव न दुखा लेना! घर वापस आने में ज्यादा देर न कर देना, आदि।
सारी तैयारियों के बाद अब किससे सब्र होता, मां इजाज़त दे और हम अपनी फ्रेंड्स को लेने उनके घर पहुंच जाएं। लेकिन मां के मुताबिक बाकी लड़कियों को तुम्हारे घर आने दो, तब उनके साथ निकल जाना।
चूड़ियां खनकाती, हाथ में फूलों से भरी टोकरियां लिए चहचहाती छोटी लड़कियों का शोर जैसे ही घर तक पहुंचता, सभी घरवाले निकलकर आंगन में आ जाते। सारी बच्चियां घर के सदस्यों पर अपनी-अपनी टोकरियों से फूल बिखेरतीं और हैप्पी होली बोलकर विश करतीं।
यहां से हम भी टोली में जुड़ जाते और गांव में घूमते हुए हर घर में जाकर सबको नमस्ते करते..., फूल बिखेरते..., हैप्पी होली बोलते और निकल जाते...। इस दौरान घर के लोगों की उन बच्चों से भी पहचान हो जाती जिन्हें वे अब तक नहीं पहचानते थे। कोई प्यार से गोद में उठा लेता तो कोई तरह-तरह की मिठाइयां परोस देता। कोई सौ सवाल पूछता। कोई मस्ती में डराने की काशिश करता, तो कोई पढ़ाई का स्टेटस चैक करने लग जाता।....और इस तरह शाम हो जाती और हम घर लौट आते।
ये एक खूबसूरत तरीका था समाज को, लोगों को जानने का, रिश्तों की पहचान करने का, संस्कारों को जीने का। ये एक खूबसूरत याद थी जो आज भी हमारे दिलों में जिंदा है। ये एक खूबसूरत परंपरा थी जिसका अनायास ही मिट जाना बड़ा खलता है। अब गांव में होली पर किसी का घर लाड़लियों की रंग-बिरंगी टोकरियों से गिरे उन फूलों से नहीं महकता, अब लड़कियों की टोली फूलों से त्योहारों की मुबारकबाद देने नहीं जाती।
आज समय बदला चुका है, हम कहते हैं कि हमने विकास किया है लेकिन उस विकास की प्रक्रिया में समाज के चेहरे को नकारात्मकता के साथ बदल दिया है। मुझे नहीं लगता कि आज कोई भी मां-बाप अपनी पांच या दस साल की बेटी को अपने पड़ोसी के यहां बेखौफ भेज दें, या इस तरह बच्चियां आजादी से किसी के घर जाकर एक-दूसरे को विश कर सकें। हमने अपने बच्चों के लिए कैसा माहौल बना दिया है ?
सवालों के जवाब हमारे ही पास हैं बदलना भी हमें ही है। ये बेहद खूबसूरत परंपरा जिस तरह विलुप्त हो गई इसी तरह न जानें और भी कितने ही ट्रेडिशन खत्म होने की कगार पर हैं या हो चुके हैं, जिन्हें सहेजकर रखने में हम सभी को सहयोग करने की जरूरत है। आज भी जब होली का जिक्र होता है तो वह अनमोल दिन कभी नहीं भूलता। बस कुछ बाकी है तो खूबसूरत यादें, जो आपको ताजगी देती हैं, ऊर्जा देती हैं।

Friday, February 7, 2020

'रॉयल इनफील्ड' से है भारतीय सेना का पुराना नाता, इस मिलिट्री ब्रांड से जुड़ी 11 बातें


'रॉयल इनफील्ड' और भारतीय सेना एक दूसरे से अनजान नहीं हैं या यूं कहें कि यानी बुलेट का सेना से बहुत पुराना संबंध है। यहां तक कि विश्व युद्ध के दौरान भी इस मोटरसाइकिल का इस्तेमाल किया गया और आज तक भी यह बाइक कई देशों की सेनाओं की पहली पसंद है। आजादी के बाद से बुलेट ने सैन्य बाइक के रूप में देश में एक अलग पहचान बनाई और आज बुलेट न सिर्फ सेना बल्कि आम लोगों के लिए भी स्टेटस सिम्बल बनी हुई है। आखिर आम लोगों में क्यों खास है और क्यों सेना की शान है बुलेट। आइये जानते हैं कुछ खास और रोचक बातें :

 छोटे बिजनेस से शुरू हुई थी कम्पनी


ब्रिटिश कम्पनी रॉयल एनफील्ड ने दरअसल, शुरुआत में एक हथियार बनाने वाली कम्पनी के रूप में बिजनेस शुरू किया था जिसकी 'एनफील्ड राइफल' काफी प्रसिद्ध थी। बाद में इसने साइकिल  व कार बनाना शुरू किया और इसे साइकिल कम्पनी के नाम से भी पहचाना जाने लगा।

इन्होने बनाई थी पहली बुलेट  


इस कम्पनी की पहली  मोटरसाइकिल सन 1885 में गॉटलीब डेमलर और विल्हेम मेबैक द्वारा जर्मनी में बनाई गई थी। इसे एक रेटवगेन (सवारी कार) कहा जाता था और यह पहला गैस संचालित वाहन था।'एनफील्ड राइफल' को ट्रिब्यूट करते हुए इस बाइक का नाम बुलेट रखा गया और इसका लोगो भी बुलेट जैसा डिजाइन किया गया।  

विश्व युद्ध से भी जुड़ा है बुलेट का इतिहास


सन 1909 में इस कम्पनी ने बुलेट मोटरसाइकिल बनानी शुरू की लेकिन यह कम्पनी ब्रिटेन नहीं बल्कि रूस को युद्ध के लिए बाइक बनाकर देती थी। रॉयल एनफील्ड ने बुलेट को साइड कार के साथ डिजाइन किया। जिसका प्रयोग प्रथम व द्वीतीय विश्व युद्ध में आर्मी मशीनगन के लिए प्रयोग करती थी। इसे हिंदी फिल्म 'शोले' में भी दर्शाया गया।

भारतीय सेना से खास संबंध


भारतीय सेना के साथ रॉयल एनफील्ड का इतिहास सन 1949 में शुरू हुआ, जब सरकार ने रॉयल एनफील्ड की बुलेट को देश की सीमा पर   गश्ती उपयोग के लिए बनाने का आदेश दिया था। तब से आज तक 'रॉयल एनफील्ड' ने भारतीय सेना के साथ एक संबंध बरकरार रखा है। 'रॉयल एनफील्ड बुलेट' इकलौती ऐसी बाइक है जिसे भारतीय सेना में  इस्तेमाल किया जाता है।

कम्पनी ने भारत में मद्रास मोटर्स के साथ किया था टाईअप


सन 1949 के दौरान जब भारतीय सेना के अधिकारियों ने बुलेट का परीक्षण किया तो उन्हें लगा कि पिछले वाहन की तुलना में यह काफी बेहतर है। इस तरह ब्रिटिश निर्माता कम्पनी को भारत सरकार से अपना पहला ऑर्डर मिला और उसने मद्रास मोटर्स के साथ मद्रास (चेन्नई) में एनफील्ड इंडिया के रूप में एक कारखाना खोला।

भारत-पाक बॉर्डर पर तैनात की गई थी पहली बुलेट


सन 1952 में भारतीय सेना ने कम्पनी से तकरीबन 800 रॉयल एनफील्ड बुलेट मोटरसाइकिल खरीदीं। इसके दो साल बाद रॉयल एनफील्ड कंपनी ने सन 1955 में भारत में इनका निर्माण करना शुरू किया। इनमें से कुछ बुलेट् को पंजाब में भारत-पाक सीमा पर गश्त के लिए लगाया गया था।

भारतीय वायुसेना के सम्मान में लॉन्च की है 'ब्लू बुलेट'


'रॉयल एनफील्ड' बुलेट बाइक्स बनाने के लिए भारत में  मशहूर है। एनफील्ड की क्लासिक 500 स्कावड्रन नीले कलर की बुलेट भारतीय वायुसेना के सम्मान में लॉन्च की गई है। यह काफी स्टाइलिश और क्लासिक है।

बुलेट का सबसे ज्यादा बिकने वाला मॉडल


सन 1995 में रॉयल एनफील्ड का बुलेट 350 CC बुलेट बनाई। यह कम्पनी का सबसे ज्यादा समय तक चलने वाला मॉडल है जो सन 1995 से  आज तक भी काफी डिमांड में है। कम्पनी ने इस मॉडल की 20,000 बुलेट्स मोटरसाइकिलों का प्रतिवर्ष निर्माण किया था। यह बाइक सेना के सभी मानदंडों पर खरी उतरती है।
भारतीयों की पहली पसंद

सन 1990 के बाद अन्य दोपहिया निर्माताओं ने भी भारतीय बाजार में अधिक एडवांस व्हीकल का उत्पादन करना शुरू कर दिया। लेकिन  भारतीय सेना 'रॉयल एनफील्ड' के साथ बनी रही और अभी भी इन मोटरसाइकिलों का उपयोग कर रही है। लम्बे समय तक राष्ट्र को सेवा देने वाली टीम के साथ इतने सालों का संबंध, ब्रांड के लिए एक देशभक्ति की भावना भी जोड़ता है। यही कारण है कि आप गणतंत्र दिवस परेड जैसे राष्ट्रीय अवसरों पर हैरतंगेज़ स्टंटों के लिए रॉयल 'एनफील्ड' बाइक का उपयोग करते हुए भारतीय सैनिकों को देखते हैं।

 भारत सहित 45 देशों में है बुलेट का जलवा  


'रॉयल एनफील्ड' भारत के साथ साथ अमेरिका, जापान, दक्षिण अमेरिका जैसे 45 अन्य देशों के लिए भी मोटरसाइकिलों का निर्यात करता है। यही नहीं, यह  बाइक इतनी विश्व प्रसिद्ध है कि अभी तक जितनी हर्ले डेविडसन बाइक पूरी दुनिया में बेंची गई हैं उससे कहीं ज्यादा बुलेट  अकेले भारत में बेंची गई हैं।

लोगों में आज भी बरकरार है बुलेट का क्रेज  


सन 1970 में 650 सीसी 700 सीसी की बाइक भी बाजार में उतारी लेकिन इसकी मांग न होने के कारण कम्पनी ने इसका निर्माण बंद कर दिया। इसके अलावा एक डीजल से चलने वाली बाइक भी बनाई जो सफल नहीं हुई और कम्पनी को इसका भी उत्पादन बंद करना पड़ा। खैर ! 'रॉयल एनफील्ड' बुलेट अपनी मजबूती, अपने आकर्षण और खास डिजाइन के लिए प्रसिद्ध है यही कारण है सेना के साथ-साथ आम युवाओं में भी इसका क्रेज आज भी बरकरार है।

Wednesday, February 5, 2020

सेकेंड वर्ल्ड वार में इन टैंकों ने मचा दी थी तबाही, 10 खतरनाक 'बैटल टैंक'


वैसे तो प्रथम विश्वयुद्ध में ही टैंकों का प्रयोग शुरू हो गया था पर सही मायनों में उनकी जाबांजी दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सामने आई। इन टैंकों ने युद्ध में दोनों पक्षों के लिए अहम भूमिका निभाई। दोनों पक्षों ने दूसरे विश्व युद्ध से पहले और बाद में बड़ी संख्या में टैंकों का निर्माण किया। आज हम आपको दूसरे विश्वयुद्ध के दौर में ले चलते हैं और बताते हैं उस युद्ध के 10 सबसे ताकतवर टैंकों के बारे मेः
M4 Sherman Tank (United States)

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान निर्मित यह दूसरा सबसे मजबूत टैंक था। अमेरिका और मित्र देशों के पश्चिमी सहयोगियों ने इसे बनाया। M4 Sherman Tank में 90 राउंड के साथ औसतन 75 mm का मेन गन था और इसका आर्मर अपेक्षाकृत पतला (76mm) था। वर्ष 1941 में इसे पेश किया गया। इसका नाम अमेरिकी सिविल वार के दौरान प्रसिद्ध जनरल William T Sherman के नाम पर रखा गया था। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ऐसे 50,000 टैंक बनाए गए।

Sherman Firefly (Britain)

Sherman के ब्रितानी संस्करण में विध्वंसक 17 pounder antitank gun फिट किया गया था। यह तब तक के सबसे घातक टैंकों में से एक माना जाता था। इससे धुरी राष्ट्र भी डरते थे। विश्वयुद्ध खत्म होने ऐसे 2,000 टैंक बनाए ज चुके थे।

Panzer 4 (Germany)

जर्मनी में निर्मित इस टैंक का दूसरे विश्वयुद्ध में काफी इस्तेमाल किया गया। इसमें 75mm की मेन गन लगी थी। इस टैंक ने 1200 मीटर की रेंज में सोवियत टैंक T 34  की धज्जियां उड़ा दी थीं। बाद में सोवियत टैंकों ने इसकी काट खोज ली और मास्को से लेकर बर्लिन तक सोवियत संघ ने लगभग 6,000 panzer IV  टैंकों की धज्जियां उड़ा दी थीं।

T- 34 (Soviet Union)

यह ऐतिहासिक टैंक दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सर्वाधिक संख्या में निर्मित और सबसे ज्यादा उपयोग में लाया गया। सोवियत संघ ने लगभग 84,000 टैंकों का निर्माण किया था। बचे हुए टैंकों में से बहुत से अभी भी एशिया और अफ्रीका में हैं। इसकी लोकप्रियता इसके 45mm sloping frontal armor के कारण थी। जो panzer IV का प्रतिरोधी था।

MK V Panther (Germany)

एक मीडियम जर्मन टैंक जो लड़ाई के मैदान में 1943 में शामिल हुआ और लड़ाई खत्म होने तक सेना में बना रहा। यह तेज (34 मील प्रति घंटे) और मजबूत (20mm armor) टैंक था। और इसमें 79 से 82 HE rounds के साथ 75एमएम गन था। जो किसी भी टैंक को ध्वस्त कर सकता था। हालांकि बाद में सोवियत T-34 का निर्माण अधिक संख्या में हुआ। लेकिन युद्ध के आखिर तक इसकी स्थिति खासा मजबूत बनी रही।

Comet IA 34 (Britain)

ब्रिटेन के सबसे ताकतवर कॉम्बैट टैंकों में से एक था जिसमें उच्च क्षमता का 77 mm का मेन गन लगा था। जो 17 पाउंडर गन का ही एक छोटा रूपांतरण था। Comet IA 34 दूसरे विश्वयुद्ध के अंतिम चरणों में लड़ाई में शामिल हुआ। लेकिन अपने इस्तेमाल के कम समय में ही इसने एक मजबूत हथियार के रूप में अपनी ख्याति बना ली थी।

Tiger I (Germany)

Tiger I जर्मनी का एक हैवी टैंक था जिसके पास 920-120 राउंड का 88 mm मेन गन था जो जमीन और हवा दोनों जगह निशाना साध सकता था। इसकी 38 किलोमीटर प्रति घंटा की टॉप स्पीड थी। यह एक खतरनाक जर्मन टैंक था जिससे इसके शत्रु देश डरते थे लेकिन बाद में इसकी भी काट खोज ली गई थी।

IS 2 Iosif Stalin Tank (Soviet Union)

IS टैंक फैमिली के IS 2 हैवी टैंक में विशाल 122 mm मेन गन लगा था तथा एक sloped 120mm मोटे armor से सुसज्जित था। इसका निर्माण 1944 में शुरू हुआ और कुल 2252 IS टैंकों का निर्माण किया गया। बर्लिन की लड़ाई में IS 2 टैंकों का उपयोग मेन गन द्वारा High Explosive राउंड से जर्मनी के भवनों का नाश करने के लिए किया गया।

M26 Pershing Tank (United States)

अमेरिका द्वारा निर्मित हैवी टेंक दूसरे विश्वयुद्ध के अंतिम में इस्तेमाल में लाया गया। Sherman टैंकों की तुलना में Pershing अधिक आधुनिक टैंक था। 90mm की हैवी मेन गन वाला यह टैंक टाइगर जैसे टैंकों को ध्वस्त करने में सक्षम था। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद Pershing टैंक का कोरिया युद्ध में इस्तेमाल किया गया और यह लगातार अमेरिका के लिए एक घातक टैंक के रूप में काम करता रहा।

Jagdpanther (Germany)

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान इस्तेमाल में लाया गया सबसे शक्तिशाली विध्वंसक टैंक। 88mm मेन गन, 57 राउंडस और 100mm frontal armor क्रू को सुरक्षा प्रदान करता था। यह तीव्र गति के साथ दूर तक निशाना साध सकता था। लड़ाई के दौरान सिर्फ 415 टैंकों का निर्माण किया गया। युद्ध में 30 जुलाई 1944 को इसने France में St. Martin De Bois के निकट सिर्फ दो मिनट में 11 चर्चिल टैंकों को तहस-नहस कर दिया। हालांकि युद्ध के आखिर में शामिल होने के कारण इसका प्रभाव सीमित रहा।

ये हैं समंदर में चलते-फिरते 13 एयरबेस, जानें किस देश के पास कितने 'एयरक्राफ्ट कैरियर'


विमानवाहक युद्धपोत यानी समंदर में चलता फिरता एयरबेस, जिस पर विमान उड़ान भर सकते हैं और उतारे भी जा सकते हैं। आज ताकतवर देशों की नेवी के पास अपने एयरक्राफ्ट कैरियर हैं। लेकिन कुछ देश ऐसे भी हैं जिनके पास आधुनिक तकनीक से लैस युद्धपोत हैं। भारत भी ऐसे ही  देशों में शामिल हो चुका है आइये जानते हैं किस देश के पास कितने विमानवाहक युद्धपोत हैं:-

अमेरिका के पास है विशाल बेड़ा


अमेरिका की सेना दुनिया में सबसे ताकतवर मानी जाती है।  अगर बात विमानवाहक युद्धपोतों की की जाए तो इस मामले में भी वह सबसे आगे है। अमेरिका के पास वर्तमान में दस विमानवाहक युद्धपोत हैं। एक विमानवाहक युद्धपोत उसके पास रिजर्व में भी है। खास बात यह कि उसके ज्यादातर युद्धपोत अत्याधुनिक तकनीक से लैस हैं। 

चीन के पास भी हैं एडवांस एयरक्राफ्ट कैरियर 


बीते रविवार को चीन ने अपनी नौसेना को अत्याधुनिक बनाने की दिशा में एक और पड़ाव पार किया जब उसने पूरी तरह से अपने देश में तैयार विमानवाहक पोत को समंदर में उतारा। इससे पहले चीनी नौसेना के पास 'लिआओनिंग' नामक पोत है जिसे उसने वर्ष 2012 में अपनी नौसेना में शामिल किया था। रूस में निर्मित इस विमानवाहक युद्धपोत को उसने 1998 में यूक्रेन से खरीदा था। वर्ष 2030 तक चीन अपने बेड़े में चार विमानवाहक पोत शामिल करना चाहता है।

इटली


इटली की नौसेना की गिनती भी दुनिया की ताकतवर नौसेनाओं में होती है। उसके पास फिलहाल दो विमानवाहक युद्धपोत हैं। ये दोनों पोत क्रमशः 1985 और 2008 से सर्विस में हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सन 1944 में इटली का एक विमानवाहक युद्धपोत डूब गया था और 1950 के दशक में उसे एक विमानवाहक पोत रिटायर करना पड़ा था। 

ब्रिटेन


एक वक्त था जब विमानवाहक पोतों के मामले में ब्रिटेन की तूती बोलती थी। तब उसके पास 40 पोत हुआ करते थे लेकिन आज उसके पास कोई विमानवाहक युद्धपोत नहीं है। हां, दो विमानवाहक युद्धपोत बनाने पर जरूर काम चल रहा है। दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटेन के चार पोत नष्ट हो गए थे। 

फ्रांस


फ्रांस की नौसेना के पास इस समय एक विमानवाहक युद्धपोत है। फ्रांस ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दशकों में सात विमानवाहक युद्धपोतों को रिटायर किया है।

जापान


विमानवाहक पोतों के मामले में दूसरे विश्व युद्ध से पहले जापान भी बड़ी ताकत था। उसके पास 20 विमानवाहक युद्धपोत थे। अमेरिका के साथ लड़ाई में उसे बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। उसके 18 पोतों को अमेरिका ने युद्ध में नष्ट कर दिया। बचे दो पोतों को उसने विश्वयुद्ध खत्म होने के कुछ समय बाद कबाड़ में भेज दिया।  

रूस


सोवियत संघ का जब विघटन नहीं हुआ था तब विमानवाहक पोतों के मामले में वह बड़ी ताकत था। लेकिन आज रूस के पास सिर्फ एक विमानवाहक युद्धपोत है। सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस ने चार विमानवाहक युद्धपोतों में से तीन को स्क्रैप कर दिया, जबकि एक भारत को बेच दिया था।

भारत


रूस में तैयार आईएनएस विक्रमादित्य 2013 से भारतीय नौसेना का हिस्सा है। आईएनएस विक्रांत 2016 तक इस्तेमाल होने के बाद रिजर्व में है। भारत का एक विमानवाहक युद्धपोत तैयार हो रहा है।

कनाडा


कभी विमानवाहक पोतों के मामले में कनाडा भी बड़ी ताकत था। साठ वर्ष पहले तक उसके पास ऐसे पांच पोत थे। किन्तु 1960 और 1970 के दशक में उन्हें रिटायर कर दिया। इस समय कनाडा के पास ऐसा कोई युद्धपोत नहीं है।

ऑस्ट्रेलिया


कभी ऑस्ट्रेलिया के पास भी तीन विमानवाहक युद्धपोत थे। 1950 के दशक के अंत तक उसने दो पोतों को रिटायर कर दिया। बचा एक विमानवाहक पोत भी 1982 तक ही सेवा में रहा।

स्पेन


खुआन कार्लोस यह नाम है स्पेन के विमानवाहक युद्धपोत का। वर्ष 2010 से यह शानदार पोत स्पेन की नौसेना का हिस्सा है। एक विमानवाहक युद्धपोत स्पेन के पास रिजर्व में भी है।

ब्राजील


ब्राजील के पास वर्तमान में फ्रांस में निर्मित एक विमानवाहक युद्धपोत है। इससे पहले 1960 के दशक में खरीदा गया विमानवाहक पोत 2001 तक ब्राजीली नौसेना में शामिल रहा है ।

थाईलैंड

थाईलैंड के पास फिलहाल  एक विमानवाहक युद्धपोत है, जिसे 1997 में तैयार किया गया था। थाई नौसेना में शामिल यह पोत आज भी अपनी सेवाएं दे रहा है।

भारतीय सेना की वे 15 रेजीमेंट, जिनसे खौफ खाते हैं दुश्मन !



भारतीय थलसेना  भारतीय सशस्त्र बल का सबसे बड़ा अंग है। भारतीय सेना की उत्पत्ति ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ब्रिटिश भारतीय सेना के रूप में भारतीय राज्यों की टुकड़ियों से हुई थी  जो स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्रीय सेना के रूप में परिणीत हुई। भारतीय सेना में टुकड़ी और रेजीमेंट का विविध इतिहास रहा है जिन्होनें दुनिया भर में कई लड़ाई और अभियानों में हिस्सा लिया है और बड़ी संख्या में युद्ध सम्मान अर्जित किये हैं। इन  रेजीमेंट्स को जरूरत के हिसाब से मोर्चों पर भेजा जाता है। आज हम आपको बता रहे हैं सेना की कुछ प्रसिद्ध रेजीमेंट्स के बारे में :-

पैराशूट रेजीमेंट 


पैराशूट रेजीमेंट की स्थापना आजादी से पहले 29 अक्टूबर 1941 को हुई थी।ये रेजीमेंट देश के सभी सैन्य बलों को युद्ध के दौरान हवाई मदद पहुंचाता है। सन 1999 में कारगिल युद्ध के समय 10 में से 9 पैराशूट बटालियन की तैनाती ऑपरेशन विजय के लिए हुई। कारगिल युद्ध में पैराशूट बटालियन ने महात्वपूर्ण भूमिका निभाई थी यही नहीं रेजिमेंट के जांबाज पैरा कमांडो दुनिया के सबसे खतरनाक सैनिकों में गिने जाते हैं

ग्रेनेडियर्स रेजीमेंट


इस रेजीमेंट को सेना में सबसे शक्तिशाली रेजीमेंट माना जाता है। जब दुश्मन इनके सामने हो तो इनका सिर्फ एक ही ध्येय वाक्य होता है ‘सर्वदा शक्तिशाली’ यानी किसी भी परिस्थिति में मजबूत बने रहना है।

गोरखा रेजीमेंट


गोरखा रेजीमेंट किसी परिचय की मोहताज नहीं है। उनका जयघोष ‘जय महा काली, आयो गोरखाली’ ही दुश्मन में खौफ पैदा करने के लिए काफी है। ‘कायरता से मरना अच्छा’ के साथ अपने टार्गेट को नष्ट करना, अपने लक्ष्य को हासिल करना ही इनका सबसे बड़ा उद्देश्य होता है।

मैकेनाइज्ड इंफ्रेंट्री रेजीमेंट 


भारत-पाकिस्तान युद्ध 1965 के बाद भारतीय सेना को मैकेनाइज्ड इंफ्रेंटी रेजीमेंट की जरूरत महसूस की गई। उसके बाद 1979 में मैकेनाइज्ड इंफ्रेंटी रेजीमेंट की स्थापना हुई। यह 26 बटालियनों में बंटी हुई है जो देश भर में फैली हुई हैं। मैकेनाइज्ड इन्फैन्ट्री रेजिमेंट ने श्रीलंका में ऑपरेशन पवन, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में ऑपरेशन रक्षक और जम्मू-कश्मीर में ऑपरेशन विजय में भाग लिया है। यह सोमालिया, कांगो, अंगोला और सियरा लियोन में संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों में भी शामिल हुई। भारतीय सेना की मैकेनाइज्ड इंफेंट्री रेजीमेंट को लद्दाख और सिक्किम के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में भी संचालन के लिए विशेष गौरव प्राप्त है।

पंजाब रेजीमेंट


'जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल' तथा 'बोल ज्वाला माता की जय' का युद्ध घोष करने वाली पंजाब रेजीमेंट भारत के सबसे पुराने फौजी रेजीमेंट में से है। भारत-पाक बंटवारे के समय पंजाब रेजीमेंट का भी बंटवारा हुआ। जिसका पहला हिस्सा पाकिस्तान को मिला, तो दूसरी बटालियन भारत को। पंजाब रेजीमेंट विदेशों में शांति कार्यक्रमों में काफी सक्रिय रही। लोगेंवाला की लड़ाई में पंजाब रेजीमेंट का जौहर हम सभी देख चुके हैं जिसने पाकिस्तानी सेना को धूल चटा दी थी।

मद्रास रेजीमेंट


मद्रास रेजीमेंट भी भारतीय सेना के सबसे पुराने रेजीमेंट में से एक है। 1750 के दशक में अंग्रेजों ने इस रेजीमेंट की स्थापना की थी, जिसके नाम तमाम उपलब्धियां हैं। इस रेजीमेंट में 23 बटालियन हैं। स्वधर्मे निधनं श्रेयः यानी कर्तव्य का पालन करते हुए मरना जिसके लिए गौरव की बात है।ऐसी वीर रेजीमेंट का युद्ध के दौरान केवल एक ही लक्ष्य होता है वीरा मद्रासी, अडी कोल्लु अडी कोल्लु यानी वीर मद्रासी, आघात करो और मारो, आघात करो और मारो !

राजपूत रेजीमेंट


इस रेजीमेंट की शुरुआत सन 1778 में तब हुई,  जब 31वीं रेजीमेंट ( बंगाल नेटिव इनफ़ेंट्री) में तीसरी बटालियन बनी थी। इस बटालियन ने ही हैदर अली से युद्ध में कुड्डालोर पर विजय पाई थी। उनकी इसी बहदुरी के लिए 'विपरीत दिशाओं मे बने कटारों' का राज चिन्ह प्रदान किया गया था, जो आज तक राजपूत रेजीमेंट का बैज है। पहली बटालियन ने दिल्ली के युद्ध में इंपेरियाल कोर्ट में मराठों को परस्त कर दिया था। भरतपुर की घेराबंदी में भी बटालियन सक्रिय थी जिसमें लगभग 400 सैनिकों ने अपनी जान गंवाई और 50 फीसदी घायल हुये थे। सर्वत्र विजय की लाइन के साथ राजपूत रेजीमेंट देश की सेवा करती है।

जाट रेजीमेंट


अंग्रेजों द्वारा 1795 में जाट रेजीमेंट की स्थापना की। जाट रेजीमेंट भारतीय सेना की एक पैदल सेना रेजीमेंट है। यह सेना की सबसे पुरानी और सबसे ज्यादा वीरता पुरस्कार विजेता रेजीमेंट है। रेजिमेंट ने वर्ष 1839-1947 के बीच 19 और स्वंत्रता के पश्चात आठ महावीर चक्र, आठ कीर्ति चक्र, 32 शौर्य चक्र, 39 वीर चक्र और 170 सेना पदक जीते हैं। अपने 200 से अधिक वर्षों के जीवन में, रेजीमेंट ने पहले और दूसरे विश्व युद्ध सहित भारत और विदेशों में अनेक युद्धों में भाग लिया है।

सिख रेजीमेंट


जब भी युद्ध हुआ है तो भारत की सिख रेजीमेंट ने उस युद्ध का करारा जवाब दिया हैं और भारतीय सेना का मान बढ़ाने में अपना भरपूर योगदान दिया है। सिख रेजीमेंट भारतीय सेना की सबसे खतरनाक सेना है। जिसे 72 लड़ाई ऑनर्स, 15 रंगमंच ऑनर्स, 2 परमवीर चक्र, 14 महावीर चक्र, 5 कीर्ति चक्र, 67 वीर चक्र और 1596 अन्य वीरता पुरुस्‍कार  मिले हैं। इस रेजीमेंट से कई अद्वितीय कहानियां जुड़ी हैं। रेजीमेंट की पहली बटालियन अंग्रेजों द्वारा 1846 में सिर्फ सिख साम्राज्य के विलय से पहले बनाई गई थी। सिख रेजीमेंट में 19 बटालियन हैं, जो निश्चय कर अपनी जीत करो के नारे के साथ आगे बढ़ते हैं।

डोगरा रेजीमेंट


अंग्रेजों ने सन 1877 में डोगरा रेजीमेंट की स्थापना की थी। डोगरा रेजीमेंट ने पाकिस्तान के दांत बार-बार खट्टे किए। डोगरा रेजीमेंट को देश के सबसे खतरनाक रेजीमेंट में गिना जाता है।

कुमाऊं रेजीमेंट


अंग्रेजों ने सन 1813 कुमाउं रेजीमेंट की स्थापना की थी।  कुमाऊं रेजीमेंट अब तक 2 परम वीर चक्र, 4 अशोक चक्र, 10 महावीर चक्र, 6 कीर्ति चक्र समेत तमाम पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। कुमाऊं रेजीमेंट ने तमाम युद्धों में अपना जौहर दिखाया। कुमाऊं रेजीमेंट दुनिया के सबसे ऊंचे युद्ध के मैदान सियाचिन ग्लेशियर में भी तैनात है।

असम रेजीमेंट


असम रेजीमेंट की स्थापना 15 जून 1941 को हुई थी। असम रेजीमेंट में विशेष तौर पर नॉर्थ-ईस्ट से सिपाहियों की भर्ती होती है। असम रेजीमेंट ने चीन हमले के साथ ही बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में भी हिस्सा लिया था।

बिहार रेजीमेंट


बिहार रेजीमेंट की स्थापना 1941 में हुई थी। बिहार रेजीमेंट ने आजादी से पहले बर्मा युद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध में हिस्सा लिया, तो सभी भारत-पाक युद्धों में हिस्सा लिया। बिहार रेजीमेंट ने कारगिल युद्ध में भी दुश्मनों के दांत खट्टे किए। बिहार रेजीमेंट के मेजर संदीप उन्नीकृष्णन ने मुंबई हमलों के समय शहादत दी।

महार रेजीमेंट


महार रेजीमेंट की स्थापना भी सन 1941 में हुई थी। महार रेजीमेंट को 1 परमवीर चक्र, 4 महावीर चक्र समेत तमाम पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। महार रेजीमेंट में देश के सभी कोने से सिपाहियों की भर्ती की जाती है।
नगा रेजीमेंट

नगा रेजीमेंट देश का सबसे नई रेजीमेंट है। नगा रेजीमेंट की स्थापना 1970 में हुई। नगा रेजीमेंट ने अपनी स्थापना के तुरंत बाद बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में हिस्सा लिया। नगा रेजीमेंट ने कारगिल युद्ध के समय द्रास सेक्टर में कमान संभाली। नगा रेजीमेंट को तमाम युद्ध सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।